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एक झुर्री चन्द सफ़ेद बाल और आइसोटोप-7 / तुषार धवल
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यह चालीस है
और इसकी गड्ड्मड्ड आवाज़ों में कोई सुर-सा सुन रहा हूँ
जीवन हो रहा है लगातार
एक शब्द बस चाहिए कि लौट आएँ टहनियों से लटके किसान कीटनाशकों का वमन करके
उसकी बिवाइयों से उगे सके ढाल लोक के तंत्र की
सृष्टि में स्वर की जो जगह है मिल सके उसे
वह चाह सके
भविष्य के बीजों में लहलहाना
कि नहीं चाह पाना चाह कर भी
एक बे-शिनाख़्त ग़ुलामी है इस व्यवस्था में
अनन्त अदृश्य उस पिंजड़े में क़ैद उसकी परिभाषा भी स्वतन्त्रता की उसी पिंजड़े में
जहाँ आज़ादियाँ तक़सीम होती हैं।