एक झोंका यादों का आया / वत्सला पाण्डेय
एक झोंका यादों का आया
और बहा ले गया बचपन के उस दौर में
जहाँ न जाने कितने अहसास पलते थे
याद आई हमें भी एक ऐसी दोपहर
जब नींद आँखों में आती ही न थी
मोहल्ले की तंग गलियाँ
गलियों से आती वो आवाज़……..
गुलाबो आई सिताबो आई
उफ़ कितना आकर्षण था उन दोनों का
दौड़ पड़ते थे नंगे पाँव ही उनके पीछे-पीछे
इस आस में कि शायद काका उसे रोके
या सोनारिन चाची
और हम सब भी देखें दोनों को
जी भर के……..
एक-एक करके लाँघते जाते
जाने कितने ही दरवाज़े
कोई न कोई रोकता ही उन दोनों को
रुकते ही शुरू होता एक तमाशा
ओ गुलाबो हाँ सिताबो
उनका सजना सँवरना झगड़ना
सब कुछ होता
बाल मन सहेजता अनगिन कल्पनाएँ
दोनों बाजुओं में लिए कपड़े से
बुनी कठपुतलियाँ और
रोचकता लिए लोकगीत की तर्ज …..
सास पतोहू छौंकन
बैठी नाक ले गया कौव्वा
चुपाय रहो भौजी मारा जाई कौव्वा…..
ये धुन और अपनी कल्पनाएँ
छत पे चूल्हे के पास बैठी औरतें
और आसमान में उड़ता कौव्वा
हाय क्या सच में……
उधर चलता तमाशा
इधर मन में घूमती कल्पनाएँ
बच्चा लोग बजाओ ताली
खेल ख़त्म पैसा हजम
इस आवाज़ से
टूटती कल्प्ननाओं की लड़ी…..
गुनगुनाते-खिलखिलाते हम भी
लौट आते अपने घर
और इन्तज़ार करते अगली दोपहर का…..
अब तो आती ही नहीं ऐसी कोई दोपहर
और न वो गुलाबो न सिताबो
जाने कहाँ गुम हो गईं हैं दोनों
महानगरीय संस्कृति में डरकर…
पर अन्दर छुपा बाल मन
आज भी इन्तज़ार करता है
वैसी ही एक दोपहर का…….