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एक डरी और सहमी दुनिया में / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सुन ली जातीं हमारी प्रार्थनाएँ
तो सूर्य उदय से पहले
लाल नहीं दिखता
पत्ते कभी पीले नहीं होते
नहीं छिपाना पड़ता नारियल को अपनी सफ़ेदी
नाटक के सारे पात्र
पत्थरों में आत्मा का संचार करते
नदियाँ रोती नहीं
और समुद्र हुंकार नहीं भरते
शब्द बासी नहीं पड़ते और
संदेह के दायरे से प्रेम हमेशा मुक्त होता
स्वप्न हुकूमतों के मोहताज नहीं होते
बुलबुले फूटने के लिए जन्म नहीं लेते
धरती की सुगबुगाहट और प्रकृति की भाषा
साधारण और गैर जरूरी चीज़ों में शामिल नहीं होतीं
एकाकीपन के सारे हौसले पस्त होते
एक डरी और सहमी दुनिया में
हमारी प्रार्थनाएँ सुन ली जातीं
तब शायद चूक जाता मैं
कवि होने से !