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एक डूबती शाम का गीत / विजय कुमार

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शुरू यौवन के दिनों में इस स्त्री के साथ मैं इस शहर के समुद्र के किनारे
चट्टानों पर बैठता था
शहर की तरफ पीठ थी हमारी
लहरें आती थीं और पानी की छुल-छुल हमारे तलुओं को सहलाती थी
इस तरह यह शुरू हुआ
फिर एक दिन वह मेरे घर आ गई
उसने मेरे गिरस्ती सँभाली और मैं अमूमन भूल गया उसे

आज अचानक जब मैं उस स्त्री के पास आया
तो मृत्यु की तरफ पीठ थी मेरी
और शहर के बेमतलब शोर-गुल के बीच
यूँ घटित हुआ यह आगमन

और यह इतनी ख़ामोशी से भरा हुआ था
कि अफ़वाहों ने पूछा मुझसे
क्या यह सम्भव है?

सड़कें गीली थीं
और रोशनियाँ धुली हुईं
एक सलेटी अन्धेरा घेरता था
शर्म लानतों और विस्मृतियों से गुज़रते हुए
इन्हीं सब के बीच इच्छाओं पर तैरता चला आया था वह समय
जहाँ अचानक हम पहले से ज़्यादा मानुस थे।

मैं उसे क्या दे सकता था इस खण्डित जीवन में
मैं बार-बार एक अच्छा मनुष्य बनने का वादा करता था
फिर बार-बार इस बात को भूल जाता था
कोई भी किसी को क्या दे सकता है
उपनगर की एक घनी बस्ती में एक फटीचर रेस्त्राँ में
सस्ते प्यालों में पी गई चाय के साथ
जीवन के कुछ पछतावों के सिवा

वह सब जो जीवन था
अगरचे ठीक-ठीक अपराध के दायरे में नहीं आता था
और नहीं था यदि मेरे हाथ ख़ून से सना हुआ छुरा
तब भी मैं निरपराध कहाँ था?

चौराहे पर खडे़ होकर
मैं चिल्ला चिल्ला कर भी कहता —
‘‘सुनिए भाईजान, सुनिए, मैं हत्यारा हूँ,
इस स्त्री का वध किया है मैंने’’
कौन यक़ीन करता
लोग हँसते, मुझे सनकी समझते आगे बढ़ जाते
सुबूत कहाँ थे?

तो यह जीवन इसी तरह चलता रहा
और कोई समाधान नहीं था
क्या हममें से कोई
किसी अन्य को बता सकता था
कि कैसे घटित होता रहा यह सब

गला रुँधा हुआ था
आँखें नम
रेस्त्राँ में कहा उस स्त्री से मैंने
मैं तुम्हारे साथ फिर एक जीवन शुरू करना चाहता हूँ
मैं पच्चीस बरस पीछे लौटना चाहता हूँ
लो मैं लौटता हूँ चालीस-पचास, पचपन-साठ बरस पीछे
मैं अपनी माता की कोख से दोबारा जन्म लेना चाहता हूँ
तुम्हारे लिए सिर्फ़ तुम्हारे लिए
और उसके होठों पर पल भर वह जुम्बिश
सिर झुकाए हँसी वह एक मुस्कान
थकी हुई मोनालिसा की एक आदतन मुस्कान
समझना-बूझना जिसे बूते के बाहर था मेरे

उतरती धूप जो थी उसके चेहरे पर वह छूती थी
वह अचानक एक आश्वासन की तरह थी
न कि तमाम सारे कहे और सुने गए शब्द
उसके केश अब भी बहुत प्यारे थे
जो मेरे तमाम कहे गए पर अन्धेरे की तरह झुकते थे
और उस सबको बेमतलब बना देते थे
शुरुआती झुर्रियों वाला उसका चेहरा जो आधा उजाले में था
और आधा किसी शोक में
पचपन बरस की यह औरत
क्यों अब भी इतनी कोमल थी
क्या वह अब भी कोई कामना करती थी
और उम्मीद के परे चली जाती थी?
क्या वह अपने व्यतीत में थी?
क्या वह व्यतीत से बाहर थी?

उस ढलती शाम हमारे हाथों में सब्ज़ियों के थैले थे
और मन के भीतर कुछ अन्तिम बचे हुए आश्रयस्थल
मन हुआ कि मोबाइल पर सुनाएँ हम
अपने दिवंगत पुरखों को
बाज़ार में शाम की इस पवित्रता का गीत

चारों ओर इस अफ़रा-तफ़री में
तेज़ रफ़्तार में
इस तरह हम सड़क पर दो छूटे हुए कोमल पक्षी थे
पेट्रोल की महक में लिपटे बसन्त में
काँपती हुई थी वस्तुएँ
और हमारा आसपास हमारा आईना था।