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एक ताकतवर महिला नेता की कविता / उज्ज्वल भट्टाचार्य
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मैं जान चुकी थी
औरत होना मेरी कमज़ोरी थी
और सारे मर्द इसका फ़ायदा उठाते थे
चुनांचे मैंने औरत होना छोड़ दिया
और मुझे सबकुछ मिलती गई --
इज़्ज़त, ताकत, धन-दौलत...
सिर्फ़ कभी-कभी
रात को अकेले
सितारों से भरे आसमान की ओर
बांहे फैलाकर अरज करती हूं --
इज़्ज़त, ताकत, धन-दौलत...
एकबार औरत बनकर इन्हें पा लेने दो !