एक ताल, एक दर्पण / भाग २ / सुभाष काक
(१९९९, "एक ताल, एक दर्पण" नामक पुस्तक से)
४१
उदास लगे पिंजरे का पक्षी
जब तितली देखे।
४२
जुगनू रोशनी दें
बच्चों को
जो उन्हें पकडें।
४३
नाग जल निर्मल है
पांव कैसे धोऊं।
४४
अनजान कि वसन्त जा रहा
तितली घास पर सोई।
४५
वह पास से निकला
पर सवेरे के कुहरे में
उसे पहचान न सका।
४६
हरिण स्तम्भित हुआ
उछलते बाघ की
भीषण सुन्दरता देख।
४७
आतिशबाज़ी बाद
दर्शक लौटे
अब वीराना है।
४८
मकडे जाल से
तितलियों के पंख
लटक रहे।
४९
उपवन में प्रत्येक पेड
का अपना नाम है।
५०
पतङ्ग धरती गिरा
निरीक्षण से जाना
आत्मा नहीं।
५१
मधुमक्खी बार बार
देवता की मूर्ति पर
वार कर रही।
५२
कितने मूर्ख हैं जो
इशारों का दाम करते हैं।
५३
गंगा की लहरों पर
चांद चित्र बना रहा।
५४
पक्षी हंस रहे
कि हमारे पास समय नहीं।
५५
चांदनी में सब वस्त्र
सुन्दर लगते हैं।
५६
खण्डहर में मैंने
कई फूल उगते पाए।
५७
रुई का फेरीवाला
गर्मी से पीडित।
५८
मेंढक पत्ते बैठ
कुल्या को पार किया।
५९
यदि पपीहा पौधा होता
लोग गीत काट लेते
रेशमी रुमालों
और पन्नों बीच
सुखाने के लिए।
६०
आज भी
सूर्यास्त हुआ
फुलवारी में
बेचारे तारे
शरद के चांद से
हारे।
६१
तूफान के शोर में भी
चिडिया की पुकार आई।
६२
सर्दी की फुहार
मझे मिलने से पहले
फुलवारी हो आई।
६३
भुर्जतरु भीषण वर्षा में
सोए पडे।
६४
पपीहा कूक करे
पर कोई न आया।
६५
शाम हो चली
मेरी बेटी
चुपचाप रसोई में
खाना खा रही।
६६
कमल सुन्दर है
पर नाविक बहरा।
६७
कारागार के आंगन में भी
पुष्प खिले।
६८
मैं थक गया
क्या नींद में भी
पुष्प खिलेंगे।
६९
पूजा करते
पुष्प मुर्झाए।
७०
कोमल फूलों पर
वर्षा मूसल सी गिर रही।
७१
शरद की चांदनी में
मेरा बालक
गोद नहीं।
७२
पडोसी की उंची दीवार
न वह देखे नदी
न दूर पहाडी।
७३
रात अंधेरे के तम्बू में
छिप गया ताल
पर हंस का स्वर
कोमल और श्वेत है।