भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक तेरा दुख / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हो गये दुर्दिन सभी विस्मृत मगर
एक तेरा दुख मुझे भूला नहीं

काम यों तो आज तक कितने अधूरे रह गये
अनगिनत संकल्प धारा में समय की बह गये
स्वप्न जो देखे कभी थे ज़िन्दगी की भोर ने
पी लिए वे बेरहम ठंडे शहर के शोर ने।

खो गये चेहरे सभी इस भीड़ में
किन्तु तेरा मुख मुझे भूला नहीं।

छा गया आकाश पर पीला धुंधलका शाम का
आ रहा है याद मुझको रंग तेरे नाम का
मैं अकेले और बेबस हो गया हूँ इस तरह
एक बच्चा हो समंदर के किनारे जिस तरह।

मैं तरसता रह गया जिसके लिए
वह अभागा सुख मुझे भूला नहीं।

मैं कि जो अंधे अहम का हाथ थामे चल रहा
मैं कि जो अपनी लगाई आग में खुद जल रहा
इस क़दर निस्तेज कैसे हो गया तेरे बिना
क्यों अधूरा लग रहा हूँ मैं तुझे घेरे बिना।

पूर्णता जिसके लिए जन्मी न थी
हाँ वही आमुख मुझे भूला नहीं।