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एक तो मंदा ये कारोबार का / ओंकार सिंह विवेक
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एक तो मंदा ये कारोबार का,
और उस पर क़र्ज़ साहूकार का।
आय के साधन तो सीमित ही रहे,
ख़र्च पर बढ़ता गया परिवार का।
हम जिसे समझे मुख़ालिफ़ का किया,
काम वो निकला हमारे यार का।
आजकल देता हो जो सच्ची ख़बर,
नाम बतलाओ तो उस अख़बार का।
जंग क्या जीतेंगे वो सोचो,जिन्हें-
जंग से पहले ही डर हो हार का।
फिर किनारे तोड़ने पर तुल गई,
नाश हो ज़ालिम नदी की धार का।
ऋण चुका सकता नहीं कोई 'विवेक',
उम्र भर माँ-बाप के उपकार का।