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एक थी सार्वकालिक कथा / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

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माना कि एक शाम हम-तुम मिले
और हिल-मिल गए
पर पूरे इस जीवन का क्या ?

आँख तो है ये खुली और किताब है कोरी
उसे क्योंकर मैं पढ़ूँ बार-बार?
मानो कि होंठ कुछ मुस्काए
और मन में मेघधनुष खिल भी गए
पर जलती इस रेखा का क्या ?

आसमान कहीं थोड़ा सा झुका और
फूलों से कैसे हो पूछ भी लिया
पर मूक इस वेदना का क्या?

माना कि राज ! हमने खाया-पिया
और थोड़ा सा राज भी किया
पर प्यासी इस अभिलाषा का क्या ?

माना कि रानी ! तुम जीत भी गईं
और माना कि हवा यह बीत भी गई
पर जो छेड़ी उस कहानी का क्या ?

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे