भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक थी सार्वकालिक कथा / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे
Kavita Kosh से
माना कि एक शाम हम-तुम मिले
और हिल-मिल गए
पर पूरे इस जीवन का क्या ?
आँख तो है ये खुली और किताब है कोरी
उसे क्योंकर मैं पढ़ूँ बार-बार?
मानो कि होंठ कुछ मुस्काए
और मन में मेघधनुष खिल भी गए
पर जलती इस रेखा का क्या ?
आसमान कहीं थोड़ा सा झुका और
फूलों से कैसे हो पूछ भी लिया
पर मूक इस वेदना का क्या?
माना कि राज ! हमने खाया-पिया
और थोड़ा सा राज भी किया
पर प्यासी इस अभिलाषा का क्या ?
माना कि रानी ! तुम जीत भी गईं
और माना कि हवा यह बीत भी गई
पर जो छेड़ी उस कहानी का क्या ?
मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे