एक थे बंबू खाँ / प्रकाश मनु
एक थे भैया बंबू खाँ
बंबू खाँ भई, बंबू खाँ,
ऊँचे-ऊँचे बंबू खाँ,
लंबे तगड़े बंबू खाँ।
थे वे पूरे तंबू खाँ,
सचमुच ऐसे बंबू खाँ!
हाथी जैसे पैरों वाले
आँधी थे वे बंबू खाँ,
जब चाहे तो हाथ बढ़ाकर
नभ छू लेते बंबू खाँ।
खंभे जैसी टाँगें भैया
टीले जैसे उनके हाथ,
नहीं कोई था उनके जैसा
नहीं कोई चल पाया साथ।
बिफर-बिफर पड़ते थे बंबू,
चलते थे तो ऐसा लगता
चला आ रहा जैसे तंबू।
एक दिन बड़ी अकड़ में धम-धम
बंबू खाँ चलते जाते थे,
भागे हाथी, शेर, बघर्रा
ये सब उनसे थर्राते थे।
तभी कहीं से आई भैया
छोटी एक चंचल मक्खी
तुरत नाम में घुसी कि बंबू
छींक उठे, भई-आक्छी, आक्छी!
छींकें-छींके, इतनी छींके
खुद ही उड़ गए बंबू खाँ,
दूर कहीं जंगल में जाकर
गिरे बिचारे तँबू खाँ।
तंबू खाँ की तब तो भैया
ऐसी मिट्टी हुई पलीत,
बोले सारे-अकडू हारे
है नन्ही मक्खी की जीत!
दूर कहीं पर बैठी मक्खी
सुन-सुनकर यह मुसकाती थी,
बंबू ‘आह-आह’ चिल्लाते
हँसी होंठ पर तब आती थी।
फिर धीरे से उड़कर मक्खी
जाने भाई, गई कहाँ,
पर बंबू खाँ जहाँ गिरे थे
टूट-फूटकर पड़े वहाँ!