भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक दरख़्त एक तारीख़ / हसन 'नईम'
Kavita Kosh से
जैसे झुक कर उस ने सरगोशी में मुझ से ये कहा
वो दयार-ए-ग़र्ब हो कि गुलसितान-ए-शर्क़ हो
ज़ुल्म के मौसब में बू-ए-गुल से खिलते हैं गुलाब
जुस्तुजू की मंज़िलों में ख़्वाब की मिशअल लिए
डालियों पर आ के गिरते हैं थक-माँदे परिंद
आषियाँ-बदीं में रंग-ओ-नस्ल की तमईज़ क्या
तफ़रीक़ क्या
जाबिर ओ मजबूर की दुनिया अलग उक़्बा अलग