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एक दिन आवाजों पर इतने बादल छा जायेंगे कि वे बस सुनाई देंगी! / अशोक कुमार पाण्डेय

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बस यों ही एक ऊबी हुई दोपहर में कहा था उसने अखबार के पन्ने पलटते हुए
सोचो जहाँ हर चीज़ नश्वर है प्रेम को क्यों होना चाहिए अनश्वर?
यह कौन सी भूल-भुलैया है जहां निकास की राह पर इतनी चौकसी?

एक देह है रोज़ उगती हुई रोज़ डूबती हुई
एक मन है रोज़ छलता हुआ छलकता हुआ
एक दुनिया है कठफोड़वे की तरह खटखटाती हुई हमारा वज़ूद
हम समंदर की तह में उगे हुए सेवार हैं खुद ही देखते हुए अपनी ख़ूबसूरती
ऊबते हुए देखते मछलियों को
उबन में शिकार हो जाने की इच्छा भी रोमांच देती है

उसने कहा था कितने करीब से लगते हैं निर्वसन और निर्वासन
मैं खुद से निर्वासित होने के लिए होती हूँ निर्वसन
तुम जब जब होते हो निर्वस्त्र निर्वासित होने से बच जाते हो

ऐसा कैसे होगा कि हज़ारवीं बार मुझे देखोगे तुम
और मेरी आँखों में प्रतीक्षा का वही रंग होगा – साँवला?
ऐसा कैसे होगा कि हज़ारवी बार तुम कहोगे –प्रेम
और मेरी उमंगों का वही रंग होगा – बावला!

एक समय तो आयेगा न जब तुम्हारे हिलते होठ देख मैं पहचान लूंगी शब्द
तुम प्रेम कहोगे और मुझे देह सुनाई देगी
हम अभ्यस्त खिलाड़ियों की तरह खेलेंगे जीवन के खेल
वैसे पहुंचेंगे एक दूसरे के पास
जैसे नींद में नाक पर पहुँचता है हाथ
उत्तेजना की जगह आदत होगी हमारे बीच
और
एक दिन आवाज़ों पर इतने बादल छा जाएँगे कि वे बस सुनाई देंगी!