भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दिन जब / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन जब
सिवा अपनी व्यथा के कुछ याद करने को नहीं होगा-
क्यों कि कृतियाँ दूसरों के याद करने के लिए हैं :

एक दिन जब
दे न पाया जो, उसी की नोक बेबस सालती रह जाएगी-
क्यों कि दे पाया अगर कुछ, याद उस को आज
मैं करता नहीं हूँ, और, जीवन! शक्ति दो
उस दिन न चाहूँ याद करना :

एक दिन जब
प्यार से, संघर्ष से, आक्रोश से, करुणा-घृणा से, रोष से,
विद्वेष से, उल्लास से,
निविड सब संवेदनाओं की सघन अनुभूति से
बँधा वेष्टित, विद्ध जीवन की अनी से-स्वयं अपने प्यार से-

एक दिन जब
हाय! पहली बार!-
जानूँगा कि जीवन
जो कभी हारा नहीं था, हारता ही किसी से जो नहीं,
अपने से चला अब हार:
एक दिन-उस दिन-जिसे अपनी पराजय भी
दे सकूँगा समुद, नि:संकोच
उसी को आज अपना गीत देता हूँ।

आबिस्को (उत्तरी स्वीडन), 4 जुलाई, 1955