एक दिन मिलना होगा / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

मैं घोषणा करता हूँ कि उजाला और अंधेरा
तुम्हारी आँखों का खुलना और बंद होना है
तुमने देखा है कभी उगते हुए सूरज को ?
तुम्हारी आँख से निकलता है
और डूब जाता है शाम होते ही
तुम्हारी ही दूसरी आँख में
रोज़ सुबह रोशनी की पहली बूँद
आकर गिरती है मेरी बंज़र पलकों पर
इसी के साथ रोशन होती है ज़िंदगी
खुलती है एक खिड़की
नज़र आती है एक नई दुनिया
जहाँ शब्दों का एक जंगल है
एक झाड़ी के पीछे छुपता हुआ मैं
और बुझता हुआ मेरे वजूद का दीया
जलने लगता है तुम्हारे छूते ही
तुम- मैं तुमसे मिलने आई हूँ
मैं- यहाँ पर कब नहीं थी तुम
तुम- तेरा ख़्याल चुभता है
मैं- चुभन भी राहत देती है
तुम- तेरे बिन रहा नहीं जाता
मैं- मगर रहना तो पड़ता है
जैसे रात-दिन ज़िंदा हैं
महज इस उम्मीद पर
कि एक दिन मिलना होगा
और फिर बाहों में भर कर खूब रोएंगे!

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