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एक दिन मैं और तुम / प्रताप नारायण सिंह

एक दिन
मैं और तुम, बस
बीच में कोई न हो

व्यस्तताएँ ज़िन्दगी की लुप्त हों
कष्ट, चिंताएँ सभी ही सुप्त हों

दृष्टि बाँधे
बस गदोरी 
गुदगुदाती तुम रहो

कोई आहट या प्रतीक्षा भी न हो
बाह्य जग की कोई इच्छा भी न हो

मैं कहूँ जो
तुम सुनो, बस
मैं सुनूँ जो तुम कहो

फूटता अंतः-क्षितिज से गीत हो
प्राण को जोड़े हृदय-संगीत हो

बाँह धर
तुममें बहूँ मैं
और तुम मुझमें बहो

हम झुलाएँ साँझ, दुपहर, भोर को
पालना कर पूर्व-पश्चिम छोर को

एक मैं
धर लूँ सिरा, और
एक तुम पकड़ी रहो