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एक दिल ने दूसरे की जान ली / पुरुषोत्तम प्रतीक
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एक दिल ने दूसरे की जान ली
दुश्मनी व दोस्ती पहचान ली
छाँह देने के लिए उस पेड़ ने
धूप की चादर स्वयं पर तान ली
चाहतों का घर - पता कुछ भी न था
आँख बोली और हमने मान ली
एक दिन मझधार तक पहुचो ज़रा
इन किनारों पर मजे की छान ली
पेड़ होकर आँधियों से क्या डरें
दुश्मनी जब ठान ली तो ठान ली