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एक दिवस और / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
आज सुबह आया था, रहा शाम तक, वह भी चला गया,
एक दिवस और।
टुकर-टुकर ताकता रहा क्षितिज, सूरज फिर छला गया
एक दिवस और ।
आँगन-आँगन कितना रोशन था, ख़ुशियाँ थीं आसमान तक,
छमक-छमक नाचती हवाएँ थीं पूरब से पश्चिम की तान तक,
मुआ वक़्त कल-परसो की तरह उम्मीदें सारी झुठला गया
एक दिवस और।
देखा दिनभर चारो ओर, राहों पर कितनी रफ्तार थी,
मंज़िल की ओर चली जा रही भीड़ सब जगह अपरम्पार थी,
गोधूली के ग़ायब होते ही क्षणभँगुर मधुर सिलसिला गया,
एक दिवस और।
आओ, सपने बुन लें आँख-आँख, गिन लें पल रात-रात भर,
वैसे ही हो लें हम हू-ब-हू, थे जो, कल रात-रात भर,
उगती उम्मीद की उँगलियों से घाव हरे कोई सहला गया,
एक दिवस और।