एक दिवस गोदा के तट पर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
एक दिवस गोदा के तट पर
श्री रघुनाथ पधारे,
सीता-लक्ष्मण सहित
साधुता-वैभव के रखवारे।
सुधावर्षिणी मृदुवाणी
लहरो पर थिरक उठी थी,
गोदावरी नदी
गौरव-गरिमा से चमक उठी थी।
'राम' शब्द मेरे उर-अन्तर
में भी डोल रहा था,
चिदानन्द की अमरत धारा
घोल-अनमोल रहा था।
खोल-खोल वातायन
लहरों के मैं देख रही थी,
ठहरी हुई राम-छवि पर
पर जल में बही-बही थी।
गोदावरी पुनीत हो गयी
मैं भी रम्य हुई थी,
राम पदारविन्द पावन पा
जगत प्रणम्य हुई थी।
द्वादश वर्ष व्यतीत हुए
गोदा के पावन तट पर,
हुई न खट-खट रंच
पर्णकुटिया की श्री चौखट पर।
स्वर्णकाल है यही
राम के जीवन का अनुपम है।
इसके सिवा सकल जीवन
संकट सम्पन्न परम है।
वनफूलों के सहज
सुगन्धित भूषण स्वयं बनाकर,
शुभाशया वैदेही का
करते सिंगार सुखसागर।
देख-देख यह दिव्य प्रेम
मेरा भी उर खिलता था,
परमानन्द-रत्न मुझको
बिन माँगे ही मिलता था।
वह षोभा, वह प्रेम,
शान्ति वह दिखी न फिर जीवन में,
एक मौन चलचित्रण-सा
रह गया हमारे मन में;
किन्तु राम के जीवन का
आनन्द न विधि को भाया,
भंग हो गया रास
दुखों का घटा-टोप घिर आया,
हरण हो गया शान्ति-सिया का
विकल हुए रघुनन्दन,
प्राणों में वेदना दृगों में
जगे सघन घन सावन।
भटक रहे वन पथ पर
राघव अन्तर्व्यथा सँवारे,
क्रूर नियति का चक्र
अटल है करते क्या बेचारे,
जो सबके पालक पोषक हैं
सबके हैं रखवारे,
आज सराहाहीन बिलखते
जिनके जगत सहारे;
किन्तु स्वयं के लिए
शान्ति जो औरों की हरते हैं,
वे विनाश के उच्च शिखर
पर ही निज पग धरते हैं।
वही प्रभावी ज्योति जगती
तिलक लगाती आकर,
वही ईंगुरी साँझ
बजाती झाँझ झींगुरी सस्वर;
वही द्विजावलि स्वस्तिपाठ
करती है साँझ-सेवेरे,
वही तितलियों अलियों
के भी लगते रहते फेरे।
किन्तु न पहले जैसी
मोहक छटा-घटा घिरती है,
जीवन की धारा पर
केवल सुधियों-सी तिरती है।
राम-राम गाता समीर
सानन्द सतत बहता है,
लहर-लहर पर राम-सँदेशा
लिखता ही रहता है।
नामामृत से अंग-अंग
रोमांचित हो जाते हैं।
जग-मग होते प्राण
धन्य प्रेमाश्रु उमड़ जाते हैं।
जगद्वन्द्य हे राम!
जगत की दशा 'देख लो आकर'
खींच रहा है मन को
मनसिज गरलाम्बुधि में हँसकर,
जाने किसने लूट लिया
पावन विवेक के धन को
पात-पात रसहीन कर रहा
जीवन के उपवन को,
समगान हो रहा विरस
संस्कृति की दीप्ति मलिन है,
सदाचार की ज्योति मन्द है
सत्य ग्रस्त दुर्दिन है।
ममता दया और करुणा के
दीपक रिक्त हुए हैं,
देखों आर्यधरा के
पावन दृग अभिषिक्त हुए हैं।
आओ मेरे राम!
शुष्क अधरों पर हास सजा दो,
मानवता के मोरपंख से
सारा भुवन सजा दो,
अम्बर हँसे धरा मुस्काए
विधुरस विधु बरसाये,
जीवन का कलगान मधुर हो
संस्कृति मोद मनाये।