एक दीप बुझ गया / लाखन सिंह भदौरिया
एक दीप बुझ गया
(निर्बाण पर्व पर)
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
वह प्रकाश लेकर आया था, अन्धकार कैसे रह पाता,
ऐसा-वैसा दीप न था जो एक झकोरे में बुझ जाता,
झंझानिल भी मुग्ध रह गया, जिसकी दीपित ज्योति-शिखा पर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
विघ्नों ने दी जिसे बधाई, शूलों ने सत्कार किया था,
दुनियाँ के दुर्व्यवहारों ने, विष का ही उपहार दिया था,
अवरोधों की अन्ध दृष्टि ने, स्वागत किया उपल बरसाकर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
उत्पातों की आग देखकर जिसे हो गयी पानी-पानी
रोड़े भी रो पड़े भूल पर, मृत्यु प्राण लेकर पछतानी,
पत्थर भी पत्थर न रह सके, फूल बनें, सिर से टकराकर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
तिमिर ध्वस्त कर वेद विभा से, जला दीप सा निर्भय होकर,
जिसकी इच्छा पूर्ण हो गयी, प्रभु की इच्छा में लय होकर,
नयी ज्योति भर रहा विश्व में, शत-शत दीपों में मुस्काकर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।