भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक दीप माटी का आकर मेरे द्वारे पर रख जाना / साँझ सुरमयी / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बिजली के शत शत दीपों से
जब जगमग होगा जग सारा
एक दीप माटी का आ कर मेरे द्वारे पर रख जाना॥
करते रहे चाँदनी से तुम
सदा सदा पहचान अनोखी,
नही अँधेरे तुम को भाते
तुम्हें सुहाती झालर चोखी।
बार बार खायी है तुम ने
प्रेम-रस पगी मधुर मिठाई
एक बार आ कर हे साथी सूखी रोटी भी चख जाना॥
रात रात भर जाग जाग कर
बाट तुम्हारी जिसने देखी,
सारे जग को समझा अपना
करते रहे उसे अनदेखी।
चालबाज लोगों से अब तक
रहे निभाते जैसे तैसे
एक बार आकर तुम मेरी मुग्धा प्रीति भी परख जाना॥
रंग बिरंगे कागज ले कर
आओ इक कंदील बनायें ,
बंसवारी की ऊंची फुनगी पर
चल कर उस को लटकायें।
दूर दूर से भटके राही
राहें पा लेंगे फिर अपनी
पाओ जो संतुष्टि अनोखी तुम आ उसे भी निरख जाना॥