एक दीप सूरज के आगे / चंद्र कुमार जैन
लीक से हटकर अलग
चाहे हुआ अपराध मुझसे,
सच कहूँ, सूरज के आगे
दीप मैंने रख दिया है !
प्रश्नों के उत्तर नये देकर
उलझना जानता हूँ ,
और हर उत्तर में जलते
प्रश्न को पहचानता हूँ !
जाने क्यों संसार मेरे
प्रश्न पर कुछ मौन सा है ,
तोड़ने इस मौन का हर स्वाद
मैंने चख लिया है !
इंद्रधनुषी स्वप्न का बिखराव
मैंने खूब देखा,
रात का रुठा हुआ बर्ताव
मैंने खूब देखा !
पर सुबह की चाह मैंने
ताक पर रखना न जाना,
हर चुनौती को सफल जीवन का
स्वीकृत सच लिया है !
धूल से उठकर लकीरें
याद के जंगल में भटकीं,
और गले में चीख के वे
दर्द के मानिंद अटकीं !
पर मुझे जो आईना था
हर घड़ी निज - पथ सुझाता,
बस उसी के नाम यादों का
झरोखा कर दिया है !
स्वप्न मृत होते नहीं
यदि दीप हरदम दिपदिपायें,
धीरे - धीरे ही सही
जलती वो बाती मुस्कराये !
कोई माने या न माने
मान दे या तुच्छ बोले
जी सकूँ हर अंधेरे में
मैंने ऐसा हठ किया है !
सच कहूँ, सूरज के आगे
दीप मैंने रख दिया है !