एक नए जहां का आग़ाज़ / रवि कुमार
मैं एक नदी को
मुंजमिद होते नहीं देख सकता
और ना ही एक आफ़्ताब पर
बादलों का साया चस्पा होते
मैं आग की एक कश्ती बनाउंगा
हौसलों के चप्पू
फिर तुम्हें साथ लेकर
एक मुसल्सल
सफ़र पर निकल जाऊंगा
मादूम होते ख़्वाबों से परे
हमारे दिल ढूंढ़ ही लेंगे शायद
कोई पुरसुकून मुक़ाम
मुंजमिद नदी पिघलती जाएगी
हम अपने पसीनें की बूंदों से
एक नए जहां का आग़ाज़ करेंगे
बोसों की गर्मी से एक आफ़्ताब
रोटी की ठण्डक से एक चाँद
नज़रों की चमक से
एक कुतुब सितारा ईजाद करेंगे
और तुम्हारे आँचल के आसमान पर
इन्हें नज़ाकत से सजा देंगे
हम उस पल का जश्न मनाएंगे
जब पहली बार तुम्हारे गालों पर
सुर्खी छाई थी
और तुम गुलाब सी महक उठी थी
मैं हवा का साथ चाहता हूँ
और बादलों की ओट से आफ़्ताब को
फिर से दमकता देखना
नदी और समन्दर के विसाल को
कोई मुज़ाहमत नहीं रोक सकती
और ना ही कोई हस्सास अस्लाह
गुलाब से महक को जुदा कर सकता है
मैं नदी की ताक़त को जानता हूँ
और आफ़्ताब के तेज़ को भी