एक नन्हा-सा पन्ना / अजित कुमार
एक नन्हा-सा पन्ना
उठा लाया मेरा मुन्ना एक नन्हा-सा पन्ना
औ’ उड़ाने लगा उसे बनाकर पतंग ।
कभी किलक, कभी पुलक, कभी भोला कौतूहल ।
आ:,मुन्ने के थिरक रहे थे सारे अंग ।
मैंने झाँककर खिड़की से देखा तो लगा—
पूरी दुनिया है बाहर, और भीतर सिर्फ़ मैं ।
बाहर खुशियों से भरा शोर, घर में सन्नाटा
मुझे काटने लगा तो झटककर उसे
मैं भी निकल पड़ा घर से, मुन्ना से कह—टा…टा…।
वहाँ एक गीत था
आसमान या उससे भी परे जो हो—वहाँ तक
फैला ।
और शोख हवा
मुझसे—सिर्फ़ मुझसे—सटके नाचती हुई ।
पैरों के तले चुरमुर का संगीत ।
एक सुर में सघे तमाम वृक्ष, लयबद्ध ।
मन्त्र मुग्ध-सी मेरी चेतना को झँझोरती
कोई बस
तभी गुज़र गई
धूल का एक हलका परदा गिराती हुई,
जो कि जब उठा तो दिखा कि
जान छोड़ के भागी जा रही है बस
बड़े-से, गोल सूरज को पकड़ने ।
ताकत रहा मैं अपलक जब तक कि वह बेचारी
मय अपनी धूल और धक्कड़ और धुँए के
हड़बड़ाती, मेरे प्यारे सूरज में न समा गई ।
मैं रुका रहा और ज़िंदगी की रफ़तार से
उकताई हुई बहुतेरी दुनिया भी : वहीं ।
तब आई…
चहचहाती चिड़ियाँ,
तिरछी किरनें,
अँधेरी लहरें…
बारी-बारी से छूतीं मुझे, और
अपनी-अपनी जगह बाट जोहती अनन्त दुनिया को ।
वापस चल पड़ा मैं ।
और फिर से शुरू हो गया वही राग,
वही नृत्य, वही लय : एक सिलसिला,
जिसमें आ घुली थी…
किसी नन्हे शिशु के मुख से आती
कच्चे दूध की महक-सी पवित्र और निश्छल
एक गन्ध ।
उधर नीला आकाश, इधर छोटा-सा घर
जग मगाता हुआ और खुश ।
आज शाम से ही सो गया था उसका शोर;
एक हँसी, किन्तु, जागती थी चारो ओर ।
यह नया-सा कुछ । क्या है ।
सोचता था मैं, दंग ।
दिखा तभी, आ:, मुन्नी हथेली में दबे
नन्हे पन्ने पर हलका-सा बासन्ती रंग ।