एक निर्गुण / शर्मिष्ठा पाण्डेय
हिय के घर में दीप जला इकलौता, करती मैं वंदन
मरघट तेरा अभिनन्दन ओ मरघट तेरा अभिनन्दन
श्वेत कफ़न की ओढ़ चुनरिया, दल-तुलसी बन गजरा
गंगाजल से किया स्नान मस्तक पै चन्दन धरा
बैरी प्राण पियारे की अब ख़तम भई दरबानी
देह दुल्हनिया बड़ी हठीली चली निडर दीवानी
मुंद गयीं अँखियाँ, झर गयीं पलकें, भया बियोगी अंजन
मरघट तेरा अभिनन्दन ओ मरघट तेरा अभिनन्दन
दक्खिन में बाजी शहनाई चौराहे पर फेरा
छूट चले नाते-रिश्ते उठ चला नैहरी डेरा
प्रीत नवेली 'हरि पिया' संग मिलन को है अकुलाई
तरुणाई की मैली चुनर घाट-घाट धुलवाई
फट गयी चुनरी, गयी मैल ना, धोबिया करता क्रंदन
मरघट तेरा अभिनन्दन ओ मरघट तेरा अभिनन्दन
इह माटी के तन पर कितने लेप लगाये नाना
घुल गयी रंगत माटी ने बस माटी का रंग जाना
'पंच-सामग्री' डाल पकाई खीर मधुर, मधुरंग
भंडारी चौके में बैठा कर दी हांडी बंद
स्वाद धरे के धरे रहे जब आया शपा निमंत्रण
मरघट तेरा अभिनन्दन ओ मरघट तेरा अभिनन्दन