एक नुकीली कील / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
नदी थरथराती है बाढ़ से
आकाश, बिजली की कड़क से
धरती थरथराती है भूकंप से
पुल थरथराता है
यादों की रेलगाड़ी से
रात के अंधकार में
चीखती है सीटी
तितर-बितर हो जाते हैं जुगनू
कभी यादों से
कभी समय से
आदमी थरथराता है
मौत के भय से
एक नुकीली कील
तैयार हर वक्त
दुश्मन की संगीन की तरह
धँसी कि अब धँसी
फँसी कि अब फँसी
अटकी है साँसे
एक नुकीली कील
तैयार, काट डालने को डोर
तैयार, तुम्हारे कपड़े टाँगने को
नग्न ही तो जाओगे
अनंत यात्रा पर
ठंड से थरथराते हुए
अंधकार से भय खाते हुए।
एक नुकीली कील
करती है निर्धारित तुम्हारा भाग्य
क्या पहनोगे
या टँगेंगे
हवा में तुम्हारे कपड़े
तुम्हारे बिना फड़फड़ाते हुए
होना है उन्हें भी आजाद
इस फड़फड़ाहट से
इस थरथराहट से
लौट जाना चाहती है डोर
फिर कभी
फूटने के लिए
धरा की कोख से।
एक नुकीली कील
नियंत्रित करती है थरथराहट
इस ब्रह्मांड की धुरी-सी
बचाये रखती है
इसे खिसकने से
एक नुकीली कील
केंद्र है इस आदि और अनादि का
केंद्र है इस अनंत विस्तार का
जो फैलता है
और फिर लौट आता है
खुलता है और सिमट जाता है
एक नुकीली कील
लपेटती है पतंग की डोर
नाप नहीं सकते ओर-छोर
नचाती है लट्टू को
घुमाती गोल-गोल
गिर पड़ते हैं फिर
तीरों की शय्या पर
भीष्म पितामह
कृष्ण लेटते हैं वन में
एक नुकीली कील के लिए
हर-एक की
एक अलग नुकीली कील
करती है छेद साँस लेने के लिए
करती है छेद
सब बहा ले जाने के लिए
जल, जीवन, आँसू
सुख-दुःख, ताकत-
कमजोरियाँ, यादें
तमाम तरह के रसायन
भर रखे हैं जो सदियों से
सहेज रखे हैं मर्तबानों में
बह जाने दो इस संग्रहालय को
एक नुकीली कील मार्ग है मुक्ति का।