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एक पत्थर में कहाँ सम्वेदना बोने लगी / सुरेश कुमार
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एक पत्थर में कहाँ सम्वेदना बोने लगी
मेरे भीतर किसकी भटकी आत्मा रोने लगी
उसको रस्सी पर चलाती थी मेरी एकाग्रता
ध्यान बँटते ही मेरा वो सन्तुलन खोने लगी
उसकी यादों का बसेरा मन के जिस खण्डहर में था
अब वो मन्दिर हो गया और अर्चना होने लगी
चाँदनी उतरे तो उसके पाँव भी मैले न हों
ओस एक-एक फूल की हर पंखड़ी धोने लगी
अन्ततः सब रात के ही पक्ष में जाने लगे
मैं तो मैं, वो चिलचिलाती धूप भी सोने लगी