एक पल का साथ दो तुम / अमरेन्द्र
एक पल का साथ दो तुम
सौ जनम का साथ दूँगा।
तुम पपीहे-सी पुकारो एक सुर में, एक लय में
तुम मुझे पाओगी-चातक चकित, खंजन के शगुन में
आज हौले से जरा तुम अँगुलियाँ मेरी तो थामो
बज उठेंगे प्राण काया में तुम्हारे, एक क्षण में।
तुम सजो दुल्हन तरह जो
मैं तुम्हें बारात दूँगा।
प्रार्थना के शब्द में ये प्राण मेरे कह रहे हैं
तुम करो तिरछे नयन तो रोम मेरे नृत्यरत हो
खिल रहे हैं कामिनी के फूल, संध्या के समय से
तुम झुको मुझ पर विनत हो; मैं झुकूँ तुम पर विनत हो
तुम कहो जो जेठ-आया
मैं तुम्हें बरसात दूँगा।
चैत की यह चाँदनी भी जा रही है खाली-खाली
और आँखों में अमावस का अँधेरा मैं लिए
हूँ खड़ा पथ देखता सूना-सा, अन्तिम छोर तक
एक दीपक राग की ज्वाला हृदय-तल में लिए।
फूल की खुशबू-सा मन को
कब तलक आघात दूँगा।