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एक पल ताअल्लुक का वो भी सानेहा जैसा / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
एक पल तअल्लुक का वो भी सानेहा[1] जैसा ।
हर ख़ुशी थी ग़म जैसी हर करम सज़ा जैसा ।
आज मेरे सीने में दर्द बन के जागा है
वह जो उसके होंठों पर लफ़्ज़ था दुआ जैसा ।
आग मैं हूँ, पानी वो, फिर भी हममें रिश्ता है
मैं कि सख़्त काफ़िर[2] हूँ वह कि है ख़ुदा जैसा ।
तैशुदा हिसो[3] के लोग उम्र भर न समझेंगे
रंग है महक जैसा नक़्श है सदा[4] जैसा ।
जगमगाते शहरों की रौनक़ों के दीवानों
साँए-साँए करता है मुझमें इक ख़ला[5] जैसा ।
शब्दार्थ:
1. ↑ घटना, दुर्घटना
2. ↑ सत्य से इंकार करने वाला
3. ↑ इन्द्रियों
4. ↑ आवाज़
5. ↑ अंतरिक्ष, आकाश