Last modified on 6 जनवरी 2013, at 22:57

एक पारदर्शी कविता / पंखुरी सिन्हा

लौटकर यात्रा से नहीं
शिकार से नहीं
आखेट से नहीं
एक भयानक धुँध भरे जंगल से
जहाँ सूझता न हो हाथ को हाथ
और काई इतनी मोटी
इतनी गहरी
मखमली भी
फिसलन भरी
कि पतंग हो गया हो दिल
तितली भरा
तितली ही हो गई हो साँस
भाप नहा गई हो पसीने से उसे
पकड़ते उसकी बात का सार
इतनी भयानक धुँध में
कि चिड़िया बन गया हो दिल
और डैने समेटते हों कई-कई क़िस्म के पक्षी
विशालकाय क़रीब उसके ।