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एक पुरानी याद से गुजरते हुए / प्रताप सहगल

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तेज़ रफ्तार से दौड़ती बसों में
बैठा-बैठा मैं
अब भी देख लेता हूं केबिनों को
केबिन तो अब भी वैसे ही हैं
फूलदार पर्दों के पीछे
मेज़ और दो गद्देदार कुर्सियां भी
वैसी ही होंगी.
तुम्हें याद है न
तुम गद्देदार कुर्सी छोड़कर
मुझमें समा जाती थीं
और मैं तुम्हारे हाथों को दबाकर
तुम्हारे अधरों को चूम लेता था.
तुम्हारी आँखों की उभरी पलकें
जलती और बुझती हुई
एक स्नेहपूर्ण संकेत के बाद
मुझमें उतर जाती थीं
ठूंठ पर झूलती हुई लताएं
सौंदर्य-सीमा का अतिक्रमण कर जाती थीं
और सौंदर्य के पेबन्द
उधड़-उधड़ कर बिखर जाते थे.
सोचता हूं
उन गद्देदार कुर्सियों पर
अब कौन होगा?
क्या वे भी हमारी ही तरह से
अधरों और हाथों को
आपस में टकरा रहे होंगे
या बर्फ के टुकड़ों से बैठे हुए
कर रहे होंगे कोई नाटकीय बात.
लोगों को हुजूम भी तो वैसा ही है
बसों का शोर और धुँआँ
मेरे कानों और आँखों को भर देता है
और मैं अन्दर की ओर देखता हुआ
कई बार दोहराई गई बातों में
फिर खो जाना चाहता हूं