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एक पैसे में... / घनश्याम कुमार 'देवांश'
Kavita Kosh से
सुबह बहुत उदास थी
और मेरे भाड़े के कमरे में
धूप के तंतु ओढ़े
दूर तक पसर आई थी
कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था
दरवाज़े के बाहर की चिड़िया भी
रेलिंग पर हिलती डुलती
खामोश बैठी थी
और हवा का संवादहीन शोर
एक निरर्थक सायरन की तरह
बज रहा था
जबकि मैं इस सवाल से जूझ रहा था
कि सुबह इतनी सुबह सुबह
आखिर इतनी उदास क्यों थी
कि,
सबके सब ही जैसे उदास थे,
चुप थे,जबकि
कालदरें इतनी सस्ती थीं
कि पूरे दिन और पूरी रात
सिर्फ एक पैसे में
बात की जा सकती थी.....