एक प्रश्न के जवाब में / विपिन चौधरी
कितनी जल्दी बूढ़े हो जाते हैं
हमारे चहेते काका-दादा लोग
रोज़ नई अड़ंगी डालने वाले
कमीज़ में सुराख़ करने वाले
नई रबर-पेंसिल चोरी करने वाले
टिफ़िन-बॉक्स से लज़ीज़ खाना गड़प करने वाले
दोस्त तो सदा कड़क जवान बने रहते हैं
मंगलू काका
जो रोज़ इक नई कहानी को ज़मीन पर उतारा करते
काँसे की थाली में परोसी बाजरे की खिचड़ी को
इतनी देर तक फेंटते
की खिचड़ी की सफ़ेदी ख़ुद शर्माने लगती
कभी-कभी लगता कि काकी के चूल्हे ने अधपकी खिचड़ी पकाई है
बाक़ी का कमाल तो काका की उँगलियों ने किया है
काका देर रात गए घड़े बनाते और
मैं उकडूँ बैठ उनकी उँगलियों का जादू बिना पलक झपकाए देखा करती
चाक पर मिट्टी के लौंदे से सुराही बनाते काका
जादूगर के सगे भाई दिखाई देते
अपने उस चुलबुले दौर में
घर वाले सिपाही के नाती लगते
और काका फरिश्तो के दूत
घर वालों की टोली में से एक बाशिन्दा
मुझे ढूँढने काका के दलान में आ धमकता
काका गिरते-भागते
अन्धेरे कों टटोलते मुझे
कहीं गुल कर दिया करते
काका के चेचक के निशान से लदे दागिले काले चेहरे पर
आँखों की बजाए दो काले गड्ढे थे
जिन पर मैं अपनी नन्ही उँगलियाँ
कुछ इस अनुमान से फेरती कि
किसी तरह दिख जाए काका को मेरा नन्हा चेहरा
दिख जाएँ मेरे घुँघराले बाल
एक आँख में डला काजल
मेरी धूल सनी चड्डी-बनियान
एक वक़्त के बाद
किसी शाप की छाया के नीचे आ
काका-भतीजी का यह रिश्ता
दो देशो जैसा कँटीला हो गया
मेरे दादा की काका से बिगड गई
इस बैर-राग का पहला और आख़िरी निशाना
मैं ही बनी
‘टाँग तोड़ दूँगा कुम्हार मोहल्ले की तरफ देखा भी कभी तो’
छोटे चचा ने आँख तरेरी’
मेरे आँसुओं की कहानी
किसी क़िताब में बन्द हो गई
मेरा कद ऊँटनी से टक्कर लेने लगा
मेरी युवा आँखों के सामने
यह दुनिया गर्म पानी में रखे अण्डे की तरह मेरे सामने उबलने लगी
इस बार गाँव आने पर
आँखों के गड्ढों में गन्दगी लिए मैले-कुचले काका को देख कर
मैं अपने में सिमट
दो क़दम पीछे हट गई
दोष मेरा नहीं मेरी साफ़-सुथरी विरासत का था
जिसे हर मैली चीज़ से उबकाई आती थी
मेरी बचपन की चपलता को काला चोर ले गया
गाँव के चौबारे में एक लड़की और
वह भी शहर से आई हुई,
दुनिया कुछ अलग तरह से सोचती है और मैं
क्या सोचती हूँ
उसकी किसी को परवाह नहीं है
मंगलू काका तो दुनिया को चालू हालत में छोड़
अपने धाम चले गए
मै वापिस अपनी उस दुनिया में हाथ-पाँव मारने लगी
जहाँ पर ना कोई मंगलू कुम्हार-सा सिद्धहस्त हाथ हैं
ना कोई स्नेहिल मंगलू काका