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एक प्रेम कविता / उमा अर्पिता

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तुम नहीं जानते
कि किस तरह मैं
पुरानी अनुभूतियों का
कफन ओढ़कर जी रही हूँ...!

तुम्हें/तुम्हें तो सिर्फ
मुस्कराहट ही दिखती है
क्या तुम उसके पीछे
उदासी की लकीरों को
करवट बदलते नहीं देखते?

उस कमरे में अभी तक
तुम्हारे अहसास की गंध बाकी है
मैंने उस गंध को जिया है,
जी भरकर जिया है...
दीवारों से टकराकर
लौटती आवाजें हैं
जिन्हें मैंने
सिसकते हुए सुना है
उन खामोश पलों को मैंने
निगाहों में कैद करना चाहा था…
शायद
वह सब
आँसुओं के साथ-साथ बह गए...!

तुम नहीं जानते
कि किस तरह मैं
अपने सामने मंजिल को
देखते हुए भी
कदम नहीं बढ़ा सकती...
तुम नहीं जानते
अनजान हो,
तभी
दोष देते हो;
कोई बात नहीं
मुझे सब स्वीकार है
दोस्त, दोस्ती के लिए
सब स्वीकार है...

यकीन करो
मेरे दोस्त,
मैं घुटते वातावरण में
साँस ले रही हूँ
मैं पुरानी अनुभूतियों का
कफन ओढ़कर जी रही हूँ।