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एक फंतासी / लुइस ग्लुक / श्रीविलास सिंह

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मैं बताऊँगी तुम्हें कुछ: हर दिन
मर रहे हैं लोग। और यह तो है बस शुरुआत मात्र।
हर दिन अंत्येष्टि गृहों में, जन्म लेती हैं नई विधवाएँ,
नई अनाथ। वे बैठी होती हैं अपने हाथ जोड़े,
कोशिश करती निर्णय लेने की अपने नए जीवन के संबंध में।

वे हैं कब्रिस्तान में, कई तो पहली बार।
वे डरी हुई हैं रोने से, कई बार न रोने से भी।
कोई झुक कर उनके पास, बताता है करना क्या है आगे,
जिसका हो सकता है मतलब कुछ शब्द कहना,
कभी कभार खुली हुई कब्र में मिट्टी डालना।

और उसके बाद, सब लोग लौट जाते हैं उस मकान तक
जो एकाएक भर गया है आगंतुकों से।
विधवा बैठ जाती है काउच पर गंभीर गरिमा से,
ताकि लोग हो जाये पंक्तिबद्ध उस तक आने को,
कभी उसका हाथ पकड़ते
कभी उसे गले लगाते।
वह कहती है कुछ न कुछ सबसे,
उनका धन्यवाद करती, धन्यवाद करती उनके आने का।

अपने हृदय में चाहती है वह कि चले जाएं वे वहाँ से।
वह लौटना चाहती है फिर से कब्रिस्तान में,
बीमार के कक्ष में, अस्पताल में। वह जानती है
यह नहीं है संभव। लेकिन है यह उसकी अंतिम आशा,
पीछे की ओर जाने की इच्छा।
बस थोड़ा सा पीछे,
दूर विवाह तक या प्रथम चुम्बन तक नहीं।