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एक फुलझड़ी कहकर / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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एक फुलझड़ी कहकर तुम मुझे अपमानित नहीं करोगे
रोशनी थोड़ी-सी भी हो, आभार ही मानते हैं, लोग।
मैं न तुम्हारे लिये सूरज
बनकर आई थी और न चंद्रमा
न मैं तुम्हारी सुबह की धूप थी
और न ही थी सांझ की लालिमा
प्रकाश की एक पूरी किरण या
कण भी नहीं थी मैं
तुमने जिन उजालों की चमक देखी
देखी नहीं उनकी सीमा
मुझे भोगरंजित, देह रंजित, कहकर तुम लांछित नहीं करोगे,
स्पर्शो को ही प्यार का आधार मानते हैं लोग।
समय के अनवरत प्रवाह में
न तुम शाश्वत थे, न मैं
कुछ स्थायी अभाव, हमारे मन में
बने रहे, कुछ तन में
धार के विपरीत भी बहे हम
जब-जब बहना पड़ा
एक दुस्साहस तो था हमारे आचरण में
तुम मुझे अस्पर्शनीय, अपावन कहकर आहत नहीं करोगे
स्पर्शी को ही व्यवहार में प्यार मानते हैं लोग।