भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक बची हुई खुशी / दिविक रमेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक बची खुची खुशी को थैले में डाल
जब लौटता है वह उसके सहारे
तो ज़िन्दगी का अगला दिन
पाट देता है उसकी रात रंगीन सपनों से
- सपने जो अधूरी आंकांक्षाओं की पूर्ति ही नहीं
एक संकल्पित भविष्य भी होते हैं।

समझौते पर विवश आदमी से
बस इतनी ही प्रार्थना है मेरी
कि बचे न बचे कुछ
पर बची रहे हर शाम उसके पास
एक थोड़ी-सी खुशी - उसका सहारा
जिसे थैले में डाल
लौट सके वह घर डग भरता
उत्सुक

कि बचे रहें उसके पास भी कुछ सपने
कि बीते न उसकी रात सूनी आँखों में।