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एक बनती बिगार कें हम-लोग / नवीन सी. चतुर्वेदी

एक बनती बिगार कें हम-लोग।
खुस भये घर उजार कें हम-लोग॥

पूर्वजन नें महल-टहल सौंपे।
थक गये धूर झार कें हम-लोग॥

तान देवें हैं नित नये परचम।
ध्वज पुराने उखार कें हम-लोग॥

नित-नई भूल कर रहे हैं नित्त।
खूब सोच और बिचार कें हम-लोग॥

एक पगड़ी की लाज राखि रहे।
दस मुँड़ासे उछार कें हम लोग॥

उन्नती कर रहे हैं जुग्गन सों।
आज कों कल पै टार कें हम लोग॥

और कब तक 'नवीन' माँगंगे।
अपनी झोली पसार कें हम लोग॥