भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक बार फिर करुणामय / आर. चेतनक्रांति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने सारा खतरा अपनी तरफ रखा
और शहर के बीचोबीच खड़े होकर पूछा
कि अगर आप चाहें तो बता दें कि सच क्या है

लोग मेरे भोलेपन पर चकित हुए
और हँसे
और कुर्सियों पर पीठ टिकाकर शान्त हो गए

क्योंकि मेरे पास सच को जानने का कोई तरीका नहीं था
और क्योंकि उन्हें झूठ से अनेक फ़ायदे थे

इसलिए
उन्होंने बिल्कुल सच की तरह सहज होकर कहा
कि सच तो यही है जो तुम देख रहे हो

मैंने सुना
और अपनी हताशा को
जाहिर न होने देने के लिए देर तक मशक्कत की

कि अगर वे सुकून में चले गए थे
तो उन्हें अपने सन्देह का सुराग देना हिंसा थी
वह उन्हें उत्तेजना और पीड़ा में ले जाती

मैंने खतरे को सहेजकर भीतर रखा
प्रलय के अगम कूप को
अपने गोश्त से ढाँपा

और ईश्वर से कहा कि चिन्ता मत करो

और सबकी तरफ देखकर मुस्कुराया एक अहमक हँसी
कि वे आश्वस्त रहें
कि डरें नहीं कि उनका झूठ बेपर्दा था
कि कोई उन्हें आकर सजा देगा
उनके झूठ का रास्ता रोकेगा

और ईश्वर से कहा कान में
कि चलो अभी स्थगित करते हैं
कि उन्हें अपनी चालाकी
और चतुराई
और कानाफूसी
और वीरता की तरह बरतनेवाली
कायरता से और सफ़ेदी
और सफ़ाई से
बाहर आते हुए अपनी सीढ़ियाँ उतरने दो
कुछ वक़्त उन्हें और दो।