एक बार फिर नाचो न इज़ाडोरा / मंजरी श्रीवास्तव
मैं सोच ही रही थी कि
इस पेचीदा वक़्त में गुज़ारिश करूं तुमसे
एक बार फिर धरती पर आने की
पर इसके पहले ही न जाने कब
तुम समा गयी मेरे भीतर
विशुद्ध कायनात की पैदाइश बनकर
तुम्हारे साथ चला आया पूरा समंदर मेरे अन्दर
एफ्रोदिती (एक तारे का नाम) बनकर चमक उठी मैं तुम्हारी ही तरह
समंदर की मौजें बनकर नाच उठा
तुम्हारा स्वतंत्र निरंकुश बचपन मुझमें, मेरे गीतों, मेरी शायरी में
मेरे हर नृत्य और अंग संचालन में आ गया खुद ही
अंगड़ाई लेता
एक उमड़ता-घुमड़ता समंदर
तुम्हारी ज़िंदगी और कला
जो दोनों निकली थीं समंदर से रत्न बनकर
चली आयी है धीरे-धीरे मेरे भीतर
और मैंने भी सबसे ज़्यादा रोमांटिक समंदर अपने अंदर समेटकर
दरकिनार कर दिया है भावुकता जैसी बकवास चीज़ को तुम्हारी ही तरह
और थिरक उठी हूँ
आँखों में आग-से सुलगते एक हसीन जज़्बे के साथ
बीथोवेन, शुमाँ, शुबर्ट, मोज़ार्ट, शोपेन के गीत-संगीत पर
और शेक्सपियर, शेली, कीट्स या बर्न्स से लेकर
उमर ख़य्याम और महमूद दरवेश तक की कविताओं पर.
तुम्हारी ही तरह
मेरे जितने रिश्ते दिल के बने हैं
उतने ही दिमाग़ के भी
प्रेम-भूमि की सरहदों पर ये मेरे कुछ युवा अनुभव हैं
जहाँ कभी मैं अपने पहले एकतरफा प्रेम की बांहों में
वैसे ही तैरती-सी चली जा रही हूँ
जैसे कभी बहती रही थी तुम अपने पहले एकतरफा प्रेम
वर्नोन (इज़ाडोरा का प्रेमी) की बाहों में
फिर न जाने कब तुम खिंची चली गयी एथलबर्ट नेबिन (इज़ाडोरा का प्रेमी)
के संगीत की तरफ
उसकी धुन, उसका ख़याल, उसकी कल्पना बनकर
उन्हीं दिनों तुमने उतारा अपने आप को
अपने नृत्य को
एक नयी मार्मिक जागृति में
आज फिर ज़रुरत पड़ गई है उसी जागृति की
जब जेहाद के नाम पर, धर्म के नाम पर
लोगों में ज़हर भरा जा रहा है
मिसाइल की सौग़ातें आनेवाली पीढ़ियों को दी जा रही हैं
तुम मुझमें पैदा कर दो न वही अंग-संचालन
वही नयी मार्मिक जागृति.
तुमने कभी नहीं किया किसी म्यूजिक हॉल में भरी
बुर्जुआ भीड़ का सस्ता मनोरंजन
तुमने उजागर किया शरीर की अभिव्यक्तियों और गतियों द्वारा
मानवीय शरीर के सौंदर्य और महानता को
और उस मुक्ति आकांक्षा को जो
तुम्हारे लिए थी ज़िन्दगी,
एक विशुद्ध संगीतात्मक और रोमानी चीज़
तुम्हारे लिए कभी महत्व नहीं रहा
प्रेम की शारीरिक प्रतिक्रियाओं का
यूज़ी केरी (इज़ाडोरा का प्रेमी) ने दिया तुम्हें तुम्हारा
अलौकिक अनुपम आध्यात्मिक चित्र
तुमने तैयार किया ‘डांस ऑफ़ द फ़्यूचर’
बोतिसिली की ‘प्रिमाविरा’ पर
जो भरा था जीवन की महानता और चरम आनंद से
मानवता के लिए प्रेम के सन्देश से
फिर से करो न तैयार
कोई नया ‘डांस ऑफ़ द फ़्यूचर’
जो सराबोर हो सिर्फ़ प्रेम से
उसमें कोई जगह न हो युद्ध के लिए
फिर से छुओ न तुम अपने नृत्य से
ज़िन्दगी के एक बहुत ख़ूबसूरत अद्भुत आनंद भरे क्षण को
अलौकिक अनिर्वचनीय प्रेम के साथ.
हेनरिख थोड (इज़ाडोरा का प्रेमी)
जिसकी आँखों में डूबकर आसमान से भी परे
न जाने किस दुनिया में पहुँच जाती थी तुम
उसके प्रेम के अलौकिक हर्ष की प्रबल अनुभूति के साथ
घूमती रहती थी तुम उसी में
अपनी मदहोशी, आहों, सिसकियों और
आनंद के उस चरम बिंदु से घिरी
जिसकी अनुभूति शारीरिक सुख की क्षणिक घड़ियों में होती है.
भावनाओं का यह चरम आनंद कब तुम्हें
निष्प्राण-सा कर डालता और कब
नज़रें तुम्हें जिंदा कर डालतीं
तुम्हें पता ही न चल पाता था
तुम्हारी आत्मा पर उसने कर डाला था इतना अधिकार
कि उसकी आँखों में डूबकर मर जाने का जी होता था तुम्हारा
यह प्रेम कभी भी तुम्हें संतुष्ट नहीं कर पाया
बनी रही हमेशा एक मीठी, नशीली प्यास
जिसे सिर्फ़ संगीत ही बुझा पाता था.
प्रेम का यह गहरा नशा तोड़ डालता था संगीत
और देता था तुम्हें असीम राहत
पर कुछ देर बाद फिर तुम डूब जाती थी
थोड के विनाशकारी मगर अतिमानवीय प्रेम में
तुम्हारी आत्मा बन गई थी एक युद्धक्षेत्र
जहाँ युद्ध छिड़ा रहता था अपोला, डायोनिसस, क्राइस्ट, नीत्शे और रिचर्ड वाग्नर के बीच
पर, एक लयात्मक आनंद बनकर संगीत
बहाकर ले जाता था अनिर्वचनीय आनंद की ओर तुम्हें
इसके पहले एथेंस बनकर आया था तुम्हारी ज़िन्दगी का सौंदर्य
और उतार डाला था तुमने पुराने जीवन को
एक लिबास की तरह
अब तुम्हारे लिए गौण हो गया
किसी नए प्रेमी की बांहों में समाना
और दिलचस्प और ज़रूरी हो गया था बौद्धिक प्रश्नों के गलियारे में
हर्मन बोहर (इज़ाडोरा का प्रेमी) के साथ घूम आना
पर जल्द ही तुम्हारा यह अलौकिक प्रेम
बदल गया पीड़ा में
और तुम्हारे दिन तब्दील हो गए
ज़हर-सी डंसती प्रेम-पीड़ा के दिनों में
अर्नेस्ट हेकल (इज़ाडोरा का प्रेमी) के साथ
पर तुम ज़रा भी नहीं बदली
यह तुम ही तो थी
एक भविष्य की स्त्री
सभ्य और विद्वान पुरुषों से लड़ती हुई, थकी हुई.
मैं भी हूँ तुम्हारा ही प्रतिरूप
मैं भी हूँ एक आधुनिक भविष्य की स्त्री
लड़ रही हूँ इस पुरुषसत्तात्मक समाज से
तुम्हारी ही दी हुई शक्ति और हिम्मत के साथ.
तुम वापस लौटने के सपने देखने लगी
हेनरिख की ठंढी बांहों में
कूद पड़ी उसके बर्फ़ीले अस्तित्व में
जम गया तुम्हारा नग्न शरीर
और उतर गई तुम्हारी पूरी थकन
जा पहुँची तुम पीटर्सबर्ग की सर्द हवाओं में
पर घिर गई एक काले लम्बे कफ़न के जुलूस में
तुम्हारी आँखों ने देखा दहला देनेवाला मंज़र
दौड़ गई तुम्हारी आँखों में उदासी और रगों में सिहरन
जीने के लिए, रोटी के लिए, मारे गए मज़दूरों के बीच
मौन सिसक रही थी तुम
पर कोई नहीं था वहां तुम्हारी सिसकियों का मूक गीत सुननेवाला
तुम गा रही थी क्रांति का मौन गीत भीगी पलकों से
देखते हुए उस उदास और अनंत लम्बे जुलूस को
लेकिन उसी समय तुम्हारे अन्दर का एक और जीवन
दे रहा था जीवन के संगीत को लयात्मकता
थिरकने लगी थी तुम अचानक
एक असीम अनंत आनंद के साथ
रोज़ नोर्डविक से केडविक तक समंदर किनारे
करने लगी थी अठखेलियाँ रेत पर
और उचककर छू लेना चाहती थी आसमान
पर यहाँ भी थी तुम बिल्कुल अकेली
समंदर, रेत के टीलों और अपने आनेवाले अधीर बच्चे के साथ
पर समंदर हमेशा से देता आया था तुम्हें
असीम शक्ति, ऊर्जा और
कभी-कभी समुद्री तूफ़ानी हवा
स्याह आकाश के साथ
विचलित भी करते रहे थे तुम्हें वे
समुद्री तूफ़ानी थपेड़े
समुद्री सुनामी
पर इस तूफ़ान में भी तुम
कोशिश करती रहती थी अपने बच्चे को
अपना संदेश देने की
हर रात
अपने पेट के उभार को हाथ से छूकर.
मैं भी जब घूमने निकलती हूँ
कश्मीर से कन्याकुमारी तक
तो न तो पैर टिक पाते हैं
कश्मीर की बर्फ़ीली हसीन वादियों में
न ही आँखें देख पाती हैं
पानी से निकलते और डूबते सूरज को
अपनी जींस मोड़कर नंगे पाँव किसी का हाथ थामे
समंदर के रेत मिले पानी के छींटों और फ़ुहारों के रूमानी स्पर्श से पहले ही
न जाने कौन-सी अदृश्य शक्ति ला पटकती है मुझे
हैदराबाद, बैंगलोर, दिल्ली और मुंबई के ताज के पास
जहाँ मैं चारों तरफ़ घिर जाती हूँ लाशों से
चीथड़ों से, ख़ून के फ़व्वारों से
आँखें अचानक देखने लगती हैं एक ख़ूनी मंज़र
ग्लेशियर पिघल-पिघलकर
एक ख़ूनी लाल नदी में बदलने लगते हैं
और अपनी पूरी रवानी के साथ समंदर को भी
करने लगते हैं लाल
ताज के किनारे, समंदर के पास
पत्थरों पर वासु-सपना और न जाने
मोहब्बत की लिखी कितनी सारी इबारतें
शामिल हो उठती हैं मेरी रूमानियत में
मौन सिसकियाँ बनकर
पर कोई नहीं है वहां मेरी सिसकियाँ, मेरा मौन सुननेवाला
सिवाय पत्थरों और पानी के.
मेरी सिसकियाँ लौट जाती हैं मुझसे ही टकराकर
मेरी पलकें भींगती रहती हैं क्रांति के लिए
किसी गीत की खोज करती हुई
समंदर की लहरों में से
उनके गर्जन से
मैं पा भी चुकी हूँ एकाध क्रांति-गीत
असीम अनंत आनंद से
जीवन की लयात्मकता से जुड़ा
पर इसी बीच मेरी भीगी पलकें ले आती हैं एक सुनामी
और मैं वापस रह जाती हूँ अकेली
सुनामी के बाद की तबाही को देखने के लिए.
ताज में मारे गए किसी विदेशी माँ-बाप के बच्चे की चीत्कार को सुनती हूँ
तो लगता है कि तूफ़ान के बाद की तबाही के बाद
नए जीवन के संचार के लिए बजाई है किसी ने
देसी तुरही पर विदेशी सिम्फ़नी
किसी ने बजाए हैं फ्यूज़न इस सिम्फ़नी के नोट्स पर
पर इस नवगीत के आगाज़ के बावजूद
नहीं हट पाते हैं सुनामी के बाद कराहते, बिलखते लोग
मेरी निगाहों से
भूखे, नंगे बच्चे दौड़े-भागे चले आ रहे होते हैं मेरी बांहों में
और मैं कोशिश कर रही हूँ हर बच्चे को
प्यार, प्यार का सन्देश देने की
अपने वर्जिन मातृत्व से
अपनी गोद में
मुझमें जाग उठता है वर्जिन मदर मेरी और मदर टेरेसा का मिला-जुला रूप
और यह एक सुखद लम्हा भारी पड़ जाता है
मेरे पूरे दु:खी जीवन पर
और
मैं और ज़्यादा आनंद के साथ
थिरक उठती हूँ इज़ाडोरा
तुम्हारे ही विशुद्ध आनंदमय नृत्य
‘मोमेंट म्यूज़िकल’ पर
जिसे रचा था तुमने ही
एक क्षण के
एक संगीतमय क्षण के आनंद के लिए
यह संगीत पैदा करता था एक नीली-पीली चमकती आभा
जैसे हजारों बच्चियां नीले लिबासों में संतरे के पेड़ों के नीचे
थिरक उठीं हों
एक साथ.
तुम्हारे नृत्यों का एक ही अर्थ था-
एक ही माध्यम था अभिव्यक्ति का
सब कुछ एक नए जीवन को जन्म देता हुआ
प्रेम, स्त्री, सृजन, फलदायिनी पृथ्वी द्वारा.
तुम नाचती रही हमेशा
एक संतरी सूर्योदय व नारंगी सूर्यास्त के साथ
समंदर से लेकर मिस्र के मरुस्थल की सुनहरी रेत पर
होता था तुम्हारे नृत्य का उत्तरार्ध
एक मंदिर के प्रांगण में बीती धूपिया दोपहरिया की तरह
जो कल अपने आनेवाले बच्चे के सपने में खोई हुई हो.
तुम्हारे नृत्य के पूर्वार्द्ध में होती थी
नील के किनारे सरों पर पानी के मटके उठाए
कैटवॉक करती किसान स्त्रियों के कमर की लचक
नाचते हुए तुम बन जाती थी कभी आयरलैंड की प्रेयसी ‘द्रेद्रे’ (इज़ाडोरा की बेटी का नाम भी द्रेद्रे था)
और कभी-कभी ‘दहाबा’
(दहाबा – मिस्र में चलनेवाली एक ऐसी नाव जो यात्री को युग से बहुत पहले या बहुत बाद ले जाने का एहसास कराती है जहाँ बेहद सुकून हो)
जिसमें यात्रा करते हुए दर्शक पहुँच जाते थे
हज़ार दो हज़ार साल किसी बहुत पुराने युग में
सदियों पुराने स्थलों, मंदिरों और खंडहरों में घिरकर
हो जाते थे शक्ति और सुकून से लबरेज़
या हज़ार दो हज़ार साल आगे मुक्त भविष्य में.
तुम्हारे नृत्य के अंत में
एक मद्धिम रोशनी के बीच मंच से वापस जाती
तुम्हारी धूमिल आकृति
लगती थी पुराने मंदिर की धूमिल मूर्तियों की गुड़िया-सी प्यारी
पौ फटने के साथ ही थिरकने लगती थी
तुम्हारी नस-नस यों
जैसे आ रही हो नदी से पानी खींचने की आवाज़ें लगातार
ठहर जाती थी मंत्रमुग्ध-सी सुबह यों
जैसे रुक गए हों…
ठहर गए हों…
नदी तट पर मज़दूरों के क़ाफ़िले
पानी ढोते हुए
खेत सींचते हुए
ऊँट दौडाते हुए
और ये क़ाफ़िले एक-एक कर मंत्रमुग्ध-से देखते रहते थे
तुम्हारी मुद्राएँ शाम ढलने तक.
तुम्हारा नृत्य शुरू होता था सूरज के साथ
रोज़मर्रे की ज़िन्दगी की तरह
और ख़त्म भी हो जाता था वैसे
जैसे रोज़ शाम को ढल जाता है सूरज
और हो जाती है शाम
ख़ूबसूरत चांदनी रातों में पानी पर
जब थिरकती थी तुम ‘दहाबा’ बनी
थिरक उठते थे और फिर गिरते थे
पतवारें चलाते नाविकों के तांबई शरीर
उनके होंठों से निकलते गीतों की धुनों के साथ-साथ
और बज उठते थे असंख्य जलतरंग
सुरमई नदियों में
और मिला जाते थे नदियों के दोनों किनारों को
बड़ा ही महीन करके
मैं भी सोच रही हूँ कि ‘दहाबा’ बन जाऊं
और लोगों को ले जाऊं उस दुनिया में
जहाँ कोई जानता भी न हो नाम
असलहों, मिसाइलों और बमों का.
तुम नाचते-नाचते न जाने कब पहुँच जाती थी
सपनों के उस देश में
जो गरीबों के लिए मेहनत-मज़दूरी का देश होता था
पर यही एक ऐसा अकेला देश था जहाँ मेहनत-मज़दूरी भी ख़ूबसूरत हो सकती थी.
दो वक़्त का सादा भोजन खानेवाला मज़दूर भी
दिखता था यहाँ
हृष्ट-पुष्ट और ख़ूबसूरत
वह खेतों में काम कर रहा हो या
नदी से पानी खींच रहा हो
उसका तांबई, सुडौल शरीर
बन सकता था आनंद का स्रोत
किसी भी मूर्तिकार या चित्रकार के लिए.
तुम उतरती थी मंच पर ऐसे
जैसे किसी शानदार विला की तिरछी छतें
उतरती हों सीधे समंदर पर जाकर
यौवन और आनंद के हिलोरों में झूमती सारी प्रकृति के साथ
जब जल रहा होता था सूरज
तुम उतरती थी नीले समंदर में अपनी पूरी नरमी के साथ
अपनी बाहों में भरे नन्हीं जिंदगियों को लिए
अपने चेहरे पर नन्हे मातृत्व के भाव लिए
तुम उतरती रही बार-बार नीले मेडिटेरेनियन में
समझ नहीं पाई मैं आजतक कि क्या थी तुम…
एक सफल कलाकार,
एक मादक, उत्तेजक, उद्दाम, कामुक प्रेमिका
या वात्सल्य से लबरेज़ एक माँ…?
तुमने कभी तो दिया कला को निरंतर श्रम
और अपना सम्पूर्ण समर्पण
पर कभी अचानक इतना ज़्यादा समर्पित कर दिया
तुमने अपने आप को ज़िन्दगी को
कि हो गई गतिहीन
और बनकर रह गई एक आम औरत
जो प्रेमिका होती है
पत्नी होती है
माँ होती है
पर, वह कलाकार हो ही नहीं सकती
क्योंकि कलाकार होने के लिए पैदा करना होता है
कुछ न कुछ ख़ास अपने आप में
तुम्हें तो पैदा भी नहीं करना पड़ा था
तुम्हें तो यह नैसर्गिक रूप से मिला था
पर, तुम इसकी देख-रेख, इसके पोषण में
कभी-कभार कर देती थी
कहीं-न-कहीं थोड़ी-सी चूक
और बन जाती थी एक सफल कलाकार से
एक आम औरत
औंधे मुंह गिरकर धड़ाम से ज़मीन पर
पर आख़िरकार समझ गई तुम कि
कला मनुष्यों से कहीं ज़्यादा कृतज्ञ साबित होती है
और तब सचमुच तुमने ठाना
अपना पूरा जीवन कला को समर्पित करने का
तुमने समझा कि आम लोगों के लिए भी कला उतनी ही ज़रूरी है
जितनी हवा और रोटी
और तुमने प्राणवायु की तरह लोगों में घोल दी अपनी कला
कला कि इस अलौकिक मदिरा को पीकर
उन्मत्त होकर नाच उठे लोग
मैं भी कोशिश कर रही हूँ प्रेम-मदिरा को प्राणवायु में घोलने की
ताकि इसे पीकर ‘मस्त कबीरा’ बन जाएँ लोग.
अपनी आत्मकथा में एक अध्याय लिखा तुमने
‘आदिम प्रेम के लिए क्षमायाचना सहित’
जिसमें तुमने खोज लिया था कि
‘प्रेम सिर्फ़ त्रासदी ही नहीं, मन बहलाव का माध्यम भी हो सकता है’
इसलिए तुम बढ़ती चली गई इस तरफ
आदिम सहजता के साथ
अब लद गए थे दिन तुम्हारे एक गिलास गर्म दूध के
और ‘क्रिटीक ऑफ़ प्योर रीज़न’ के
अब तुम्हें भाने लगी थी शैम्पेन
मोहक पुरुषों से अपने सौन्दर्य की तारीफ़
चाहत भरे होंठ
लिपटती बाँहें
किसी प्रिय के कंधे पर मीठी आराम देती नींद
अब शरीर बन गया तुम्हारे लिए आनंद प्राप्त करने का एक माध्यम मात्र
अब तुम बांटने लगी
सुन्दर बाँहें और दिमाग़ी पीड़ा भुला देने वाले
गुदगुदे शरीर का स्पर्श
जहाँ एक ओर जिया तुमने ज़िन्दगी को पूरे आनंद से
दी हजारों लोगों को हजारों सुरीली संगीतमय शामें
पर तुम भूली भी नहीं
रूस में
भोर के अधनींदी आँखों से देखे
अपने उस सपने को जिसमें सड़क के दोनों ओर कफ़नों की एक श्रृंखला लिए
दो शवयात्राएं जा रही थीं.
वे साधारण कफ़न न थे, बल्कि बच्चों के कफ़न थे
पर टूटते ही सपना पता चला कि
तुम्हारी आँखों में दूर-दूर तक बर्फ़ थी
बर्फ़ के सिवा कुछ भी नहीं था
चारों ओर बर्फ़ के ऊंचे-नीचे ढेर थे.
बस…उसी शाम तुमने पेश किया
शोपेन की शवयात्रा वाली धुन पर
अपना अलौकिक नृत्य
सफ़ेद फूलों की सुगंध में लिपटकर
फिर तुमने प्रस्तुत किया
घायल विश्व के ज़ख्मों पर मरहम लगाता एक नृत्य
मैं भी सोच रही हूँ कि कुछ ऐसा करूं
कि धमाकों से ध्वस्त होते घायल विश्व के ज़ख्मों पर
रिसते ख़ून पर मरहम लगा सकूं.
सर पर स्कार्फ़ बांधकर जब भी बाहर निकलती थी तुम चांदनी में
तो दिखती थी उस उदास प्रेतनी-सी
जो हाथों में महानतम प्रेम की विशुद्ध अखंड लौ जलाए
चली जा रही होती थी
किसी अनंत यात्रा पर
और त्रासदी का नृत्य टहल रहा होता था
त्रासदी की देवी के साथ ‘सी-बीच’ पर चांदनी रात में
अब तुम उस लौ के साथ समा गई हो मुझमें
और मैं प्रेम की प्रेतनी बनी
हाथों में मोहब्बत की शमां लेकर
निकल पड़ी हूँ दुनिया के तमाम मुल्कों को रोशन करने की ज़िद के साथ
पर फिर भी तुम्हारी ही तरह
ज़िन्दा रखा है मैंने अपने आपको अपनी युवा देह में
पतझड़ की उदास शामों में
पत्तियों की तरह अपने सारे ग़मों को गिराकर ज़मीन पर
नग्न हो उठती हूँ मैं तुम्हारी छाया बनी पेड़ की तरह
अपने नैसर्गिक, आदिम सौन्दर्य के साथ
और सूर्य के समंदर में डूबने और आकाश में चाँद के निकलने तक
जब पहाड़ के संगमरमरी हिस्से पर
पसरती चली जाती थी चांदनी
और तुम सिमटी जाती थी एंजेलो (इज़ाडोरा का प्रेमी) की बांहों में
उसकी सम्पूर्ण इतालवी चाहत के बीच
उसने दी तुम्हें अपनी मित्रता, अपनी प्रशंसा और अपना संगीत
मैं भी थक चुकी हूँ इन धमाकों से, इस विनाश से, इस तबाही से
और इंतज़ार है मुझे अपने ‘एंजेलो’ की बांहों का
ताकि सिमट जाऊं मैं उसके सीने में
अपनी मुक़म्मल हिन्दुस्तानी चाहत और सुकून के साथ.
एथेंस की सड़कों पर दुबारा जी उठती थी
तुम्हारे अन्दर की हजारों साल पुरानी प्रेतात्मा
जब ‘एपियन वे’ पर अपनी बांहें उठाकर
ऊपर फैले विशाल आकाश की ओर
क़ब्र की क़तारों के बीच करती थी तुम एक त्रासद नृत्य
त्रासद आकृति की तरह
जहाँ क़ब्रों की लम्बी क़तारों के बीच फ्रासक्ती से आनेवाली
शराब से लड़ी बैलगाड़ियों और उनके ऊंघते गाड़ीवानों का मंज़र होता था
और लगता था जैसे समय का अस्तित्व समाप्त हो गया है.
पर…अचानक तुम्हें दिखाई पड़ता
रंग-बिरंगी टोपियाँ पहने
चहचहाते परिंदों-से बच्चों का झुण्ड
फिर पतझड़ आता था
अपने सितम्बरी तूफ़ान के साथ
और अचानक तैर जाती थी तुम्हारी आँखों में
एक अजीब-सी दहशत
पहली नवम्बर को
‘डे ऑफ़ द डेड’ के दिन
दो काले और सफ़ेद पत्थरों की वज़ह से बनते
क़ब्रों के अस्तित्व के आभास से
बदल जाती थीं तुम्हारी चाहत की हिलोरें पीड़ा में
और तुम तैर जाती थी अचानक एक गहरे गोते के साथ
मृत्यु के एहसास के बीच
मैं भी जब भी गुज़रती हूँ दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु की सड़कों पर से
देखती हूँ संवेदनशून्य मृतात्माएं
उनकी क़तारों के बीच से गुज़रते हुए
जाग उठती है मेरे अन्दर की प्रेतनी
और ख़ुद-ब-ख़ुद रोशन हो उठती है मोहब्बत की मशाल मेरी आँखों में.
नाच उठती हूँ मैं त्रासदी और चाहत के फ्यूज़न पर
फिर मेरे साथ नाच उठती हैं
मरे हुए प्यारे-प्यारे छोटे बच्चों की आत्माएं
चहकती हुई परिंदों-सी
पर यह क्षण भर की ख़ुशी होती है
दरअसल मेरे लिए तो हर दिन होता है ‘डे ऑफ़ द डेड’
हर पल होता है ‘पहली नवम्बर’
और हर पल क़ब्रों, लाशों, ताबूतों पर चलती
मृत्यु के एहसास से गुज़रती हूँ
हर पल कोशिश करती हूँ उन्हें रौंदकर
बदल डालूँ पीड़ा के तूफ़ान को
चाहत की हिलोरों में
आँखों में अजीब से धमाके
एक अपूर्व दहशत लिए
मौत को रौंदने की करती रहती हूँ हर पल एक नाक़ाम कोशिश
फिर न जाने कब उठ जाते हैं वापस मेरे क़दम
हौले-हौले समंदर किनारे
समुद्र तट पर चलती जा रही हूँ मैं
चलती जा रही हूँ, चलती चली जा रही हूँ…
रेत पर अपने क़दमों के निशान बनाती
मुड़कर देखती हूँ अपने क़दमों के निशान
इस कचोटती इच्छा के साथ कि अब कभी वापस नहीं लौटूंगी
उस मृत्यु जैसे प्रेम के आलिंगन में
ढलती शामों और रातों से बेपरवाह
मैं आगे बढ़ती जा रही हूँ लहरों को चीरकर
और मन-ही-मन समाती जा रही हूँ समुद्र की गोद में
उन शीतल लहरों का आलिंगन करती हुई
कंपकंपाती ठंढ के बावजूद मुझे भा रही है
बर्फ़ीली ठंढी हवाओं की छुअन
और उड़कर आते हुए मुझे छूते बर्फ़ के बुरादे
पर यह ज़िन्दगी से पलायन की मेरी नाक़ाम कोशिश है
जो हर बार जाकर ख़त्म होती है
तबाही, छटपटाहट और मृत्यु पर
हर बार यह सोचकर मैं वापस लौट आती हूँ कि
शायद मुझे ऐसे कुछ लोग कभी मिल जाएँ
जिनकी आत्मा ही संगीत, काव्य और प्रेम के लिए बनी है
तो मैं ज़िन्दगी भर तुम्हारी तरह उन लोगों के लिए
प्रेम धुनों पर नाचती रहती.
तुम्हारे लिए हमेशा ज़िन्दगी और कला रही
एक-दूसरे से बिलकुल अलग दो दुनियाएं
और यह कला तुम्हारी इच्छा या इरादे की परवाह न कर
पनपती रही अपने बलबूते
और परवान चढ़ती रही
अपने आप में एक अलग ईकाई-सी
तुम्हारे अन्दर सचमुच जीता था एक ऐसा कलाकार
जो तुम्हारे अन्दर के तमाम इंसानों से अलग था.
नीत्शे के ‘स्त्री एक दर्पण है’ को सार्थक करते हुए
तुमने भी प्रतिबिंबित किया उन तमाम लोगों और शक्तियों को
जो छाये रहे तुम्हारी ज़िन्दगी पर
तुमने भी बदला स्वरूप और चरित्र
ओविड के ‘मेटामॉर्फ़ोसिस’ की नायिकाओं की तरह
देवताओं के आदेशानुसार.
वॉल्ट व्हिटमैन के प्रजातंत्र के गीत में तुमने महसूस की
रॉकी पर्वतों की घुमावदार महानता
अमरीकी आत्मा का संवेग, जो श्रम के माध्यम से
एक सुविधाजनक जीवन पाने में संघर्षरत है
तुम्हारी नज़रों में यह नृत्य, यह संगीत था
एक नन्हे बच्चे के मासूम क़दमों की तरह
जो अपने पांवों पर उचक-उचककर
भविष्य की ऊंचाइयों को, उपलब्धियों को छू लेना चाहता है
जीवन की उस नई दृष्टि को छू लेना चाहता है
जिसे ‘स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी’ अभिव्यक्त करती है.
यह संगीत था एक ऐसा संगीत
जो आत्मा के स्वर्ग से निकलकर
आसमानों में घुमड़ता हुआ
प्रशांत पर लहराता हुआ
मैदानों में विचरता हुआ
रॉकी पर्वतों की चढ़ाइयों पार तक
अपने पंख फैला सके.
अब्राहम लिंकन के
वॉल्ट व्हिटमैन के गाते हुए अमरीका को
सुन सकने, अभिव्यक्त कर सकने में सक्षम
तुम्हें इंतज़ार था उस संगीतज्ञ का जो निकाल सके
वॉल्ट व्हिटमैन के उस संगीत को
ज्वालामुखी की तरह ज़मीन की तहों से बाहर
या तूफ़ानी बारिश की तरह टपका सके आसमानों से
और नाच उठने को उज्ज्वल लड़के-लड़कियों के इस संगीत पर
जिनके नृत्य में किसी मोहिनी का फूहड़ श्रृंगार-रस नहीं होता
होता शारीरिक का ऐसा जादू और उत्थान
जो किसी सभ्यता ने पहले कभी नहीं देखा होता.
तुम देखने लगी थी व्हिटमैन के गीत को सुनने के बाद से ही
उस अमरीका को नाचते हुए
एक विराट मानव आकृति के रूप में
जिसमें न तो बैले की नज़ाकत भरी अदाएं थीं और
न ही नीग्रो नृत्य की कामुकता.
यह होता बिल्कुल साफ़-सुथरा
आसमानों को छूती एक भव्य अमरीकी नृत्य आकृति
समुद्र, मैदानों, पर्वतों को अपने दायरे में समेटे
एक फुर्तीली लचकता के साथ मस्तक ऊंचा उठाए
बाँहें फैलाए दुनिया को नेतृत्व देता अमरीका.
अमरीकी उद्यमियों की पहल को
अमरीकी बहादुरों के साहस को
अमरीकी माँओं की प्रेरक ममता और विनम्रता को
नाचते हुए अमरीकी प्रजातंत्र को
नाचते हुए अमरीका को
देख लिया था बहुत पहले तुमने
पर क्या तब तुम देख पाई थी
आज का अमरीका …?
तब तुम्हें लगने लगी थी ज़िन्दगी
बहुमूल्य जवाहरात भरा एक ताज
खिले-खिले फूलों भरा एक भरा-पूरा उद्यान
हर पल खुशियों की नई पौध पैदा करती एक सुहानी भोर
तुम्हें मिल ही नहीं रहे थे तब
अपने उल्लास और आनंद की अभिव्यक्ति के लिए शब्द
तुम्हें दिख रहा था अतीत बरबादियों के एक सिलसिले-सा
और भविष्य एक निश्चित प्रलय-सा
उन कल्पनाशील दिनों में तुम्हारा मन बन जाता था
किसी खिड़की का साफ़-सुथरा शीशा
जिसमें से नज़र आती थी तुम्हें
सौन्दर्य और रंगों की शानदार आकृतियाँ
पर उन्हीं कुछ दिनों में तत्क्षण
ज़िन्दगी दिखती थी तुम्हें गन्दगी के एक ढेर की तरह
पर मुझे कहीं भी नज़र नहीं आती है गन्दगी या
गन्दगी का ढेर भी नहीं दिखता.
अतीत की बरबादियों के श्मशान में खड़ी मैं
देख रही हूँ नाचता-मुस्कुराता विश्व
प्रलय के बाद का भविष्य
जहाँ ख़ूनी समंदर की लहरें
अचानक सराबोर होती जा रही हैं लाल गुलाब के रंग में
और विश्व के हर कोने में मुस्कुरा उठा है
लाल-गुलाबी गुलाबों से चहकता एक मुग़ल गार्डन
जो अब हमेशा खुला रहेगा
आम जनता के लिए
प्रेमी जोड़ियों के लिए.
हर बार दुःख के समंदर में जितनी गहरी डुबकी लगाती हूँ मैं
उतनी ही ऊंची होती है ख़ुशी के आसमान में मेरी हर उछाल
इज़ाडोरा बनी मैं
छू रही हूँ संगीत और नृत्य के अलौकिक आनंद की ऐसी ऊंचाइयां
जो यक़ीनन एक नई खोज है
एक नई चेतना है
विनष्ट होती जा रही मानवता के लिए.
हर पल होती जा रही हूँ और युवा
क्योंकि अभी तब तक नहीं मरना है मुझे
जब तक विनाशोन्मुख विश्व को वह अलौकिक संगीत न दे दूं
जिसका सपना हरपल मेरी आँखों में नाचता रहता है.
रहने लगी हूँ अपनी ही देह में ऐसे
जैसे बादलों में बूँद
गुलाबी आग और मादकता भरी प्रतिक्रिया का बादल
एक डरी-डरी सी, सहमी-सी, दुबली-पतली
हलकी देह वाली कमसिन लड़की से
बदल गई हूँ अचानक एक सख्त जान जांबाज़ औरत में
फिर देखती हूँ कि बदल गई हूँ एक भरी-पूरी
लताओं जड़ी मदिरा में नहाई मस्तानी देह में
जो एक प्रेमी का स्पर्श पाते ही हो जाती है
बेःद नम्र और सुरक्षाहीन
पहले थी मैं एक सहमी हुई शिकार
फिर एक जोशीली प्रेयसी
पर अब मैं छाने लगी हूँ दुनिया पर ऐसे एक प्रेमिका बनी
जैसे समुद्र पर एक साहसी तैराक
इस पूरे जहान को
बादलों और आग की लहरों में बांधते, भींचते और आलिंगित करते हुए
मैंने गाए हैं प्रेम और बहारों के साथ-साथ
पतझड़ के भी रंग भरे भव्य और विविध गीत
इज़ाडोरा…!
तुम्हारे बाद
पहली बार शायद मैंने ही महसूसा है
कि पतझड़ का आनंद भी
बहुत शक्तिशाली, गहरा और मोहक होता है.
और कभी-कभी मैं बनी हूँ एक निर्मोही आत्मा-सी भी
जो मृत्यु के बाद जा रही हो किसी दूसरे लोक में
मैं देना चाहती हूँ दुनिया को एक ऐसा नया धर्म
जिसमें कहीं भी जगह न हो नफ़रत और युद्ध के लिए
ख़ून-ख़राबे के लिए
असलहों, मिसाइलों के लिए
देना चाहती हूँ इस दुनिया को शैम्पेन और शहतूत
वोदका और कोगनाक की ख़ुमारी.