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एक बून्द मैं नदी में / सुभाष राय

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नदी के पास होता हूँ जब कभी
बहने लगता हूँ तरल होकर

नदी को उतर जाने देता हूँ अपने भीतर
उसके साथ बहती रेत, मिट्टी, जलकुम्भी
किसी को भी रोकता नहीं कभी

तट में हो शान्त, नीरव
या तट से बाहर गरजती, हहराती
मुझे बहा नहीं पाती, डुबा नहीं पाती

मैं पानी ही हो जाता हूँ
कभी उसकी सतह पर, कभी तलहटी में
कभी उसके नर्तन में, कभी ताण्डव में

फैल जाता हूँ पूरी नदी में
एक बून्द मैं महासागर तक

रोम-रोम भीगता, लरजता, बरसता
नदी के आगे, नदी के पीछे
नदी के ऊपर, नदी के नीचे

पहचानती कैसे मुझे ख़ुद से अलग
जब होता ही नहीं मैं उसके बाहर

जब कभी सूख जाती है वह
निचुड़ जाती है धरती के गर्भ में
तब भी मैं होता हूँ सोई नदी में
निस्पन्द, निर्बीज, निर्विकार