एक बेटी की कहानी / कुन्दन शर्मा / सुमन पोखरेल
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥
- मनुस्मृति
मनु के इस देश में जन्मी हुई
मैं किसी की बेटी !
ऐसा नहीं है कि तुमने मुझसे प्यार नहीं किया
हे माता-पिता!
लेकिन क्यों नहीं बन सकी मैं
जो मैं बनना चाहती थी!
क्यों चाह नहीं सकी मैं
जो मैं हो सकती थी!
खुद जी लेने की ताकत नहीं दे सके मुझे तुम,
क्या तुम्हें मेरे विवेक-बुद्धि पर भरोसा नहीं था?
या तुम डरते थे
मेरे गर्भ की जिम्मेदारी से!
और मुझे हमेशा संरक्षण में रखना
उचित समझा तुमने!
इस तरह एक आश्रित जीवन की नींव रखकर
मेरे अस्तित्व का अपमान
सबसे पहले तुमने ही किया था
हे माता-पिता!
विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जित:
उपचर्यः स्त्रीया साध्व्य सततं देवत्पतिः।।
- मनुस्मृति
मैं मनु के देश में बनी हुई
किसी की पत्नी !
शुरुआत से ही नियंत्रण का जहर पिलाकर
कत्ल करते रहे मेरे मन को तुम
और सिर्फ शरीर से ही पूरी की
तुम्हारी सभी जरूरतें को मैंने।
हे पति!
तुम्हें किसी विश्वास में स्वीकार किया था मैंने
तुम्हारा पुरुषत्व
सिर्फ लिंग में नहीं है
यह केवल संभोग से साबित नहीं होता
यह तो मेरे साथ का व्यवहार है
साहचर्य और सम्मान में दिखाई देनेवाला
यह सभी भूलकर
केवल स्वामित्व स्थापित करना ही
अपना धर्म बना लिया तुमने ।
तुम भी मेरी तरह एक, शरीर एक प्राण हो
सिर्फ लिंग भेद से
कैसे तुम इतने श्रेष्ठ और महान माने गए?
मैंने सृष्टि का गर्भ धारण किया था
सम्मान तो मेरा होना चाहिए था, है ना?
लेकिन शायद यही तुम्हारा डर का कारण बन गया।
मुझे धरती बनाकर
अपना बीज बोने के बाद
फल उगाने के स्वार्थ में
अपने कब्जे में रखा जीवनभर मुझे तुमने ।
इस तरह मेरा धर्म और मर्यादा तय करने वाले
मुझे मेरे अधिकार देने वाले
हे मनु के संतानों!
तुम कौन हो, बताओ तो ?
सिर्फ संकीर्ण और दुर्बल मानसिकता वाले पुरुष!
गायत्री से लेकर कालरात्रि की काली को
देवी मानकर पूजते हुए
साथ खड़ी नारी को
जगह दे नहीं सके कभी भी
अपने दिल में साथसाथ तुम ।
फिर भी जीवनभर मैंने
तुम्हें सहकर
जैसे हो सके वैसे
तुम्हारा सुश्रुषा करके
तुम्हारे जीवन के बाद भी तुम्हें याद करके
यह जीवन गुजार लिया मैंने
लेकिन तुम में देवता कहीं नहीं पाया
तुम तो मनुष्य तक भी नहीं बन सके मेरे साथ
हे मेरे स्वार्थी शासक!
यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सुते तथाविधम्।
तस्मात्प्रजाविशुद्धवर्थ स्त्रीयं रक्षेत्प्रयत्नतः ॥
- मनुस्मृति
मैं मनु के देश में रहनेवाली एक माता
लेकिन व्यर्थ गया तुम्हारा बीज
मेरे गर्भ के अंदर
मैं तुम्हारा वंश चलाने वाला पुत्र पैदा नहीं कर सकी
वैसे तो, पुत्र की इच्छा मैंने भी नहीं की थी।
पिता का संरक्षण
और पति के नियंत्रण के बाद
पुत्र ही पैदा होता तो भी
किसी पुरुष के ही नियंत्रण में
जीने की इच्छा नहीं रही मुझमें।
बेटी! मेरा अंतरात्मा मांगा था
बेटी होकर आई हो मेरे पास तुम।
वंशहीन, पहचानविहीन मैं
साथ जीकर तुम्हारे साथ
ढूँडना चाहती थी अस्तित्व का नया क्षितिज।
मेरा संजोकर रखे हुए
तीन उपहार देना चाहती थी तुम्हे
१- जन्म
२- जीने की सामर्थ्य
३- स्वतंत्रता।
अपना जन्म तुमने खुद नहीं चुना था
तुम्हारा जीवन तय करने का अधिकार को
मैंने अपना नहीं माना,
जन्म देने का कर्तव्य मेरा
तुम्हें जीने के काबिल बनाने तक था।
मनु का कारागार जिया मैंने, फिर भी
मैंने तुम्हें मुक्त किया, हे बेटी!
तुम्हें मजबूत पंख दिया उड़ने के लिए
हो सकता है, तुम यह कहानी पढ़ लोगी
हो सकता है, तुम समझ न पाओ इसमें छिपे हुए दर्द को
लेकिन मुझ पर दया मत करना।
आखिर, जहाँ जैसी भी स्थिति हो
जी तो लिया मैंने इस जीवन को
पूरी तरह कहीँ भी टूटे बिना ।
किसी की गलती नहीं थी इसमें
मुझे तो
मेरे युग ने ही धोखा दिया था।
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