एक बेटी की मौत पर / चिन्तामणि जोशी
करोड़ों दिलों की
दुआ हार गई
कितने गहरे होंगे
दरिंदगी के वो जख्म
कि तुम्हारा संघर्ष हारा
देश-विदेश के
डॉक्टरों की कोशिश
बेकार गई
रक्त-मज्जा-अंग का
सह ह्रास
मन मजबूत था
क्या खास
तेरह दिनों की
जीवटता के बाद
पसरी मायूसी
टूटी आस
रण छोड़ गई तुम
देश को
देश के दिल
दिल्ली को
दुनियाँ को
झकझोर गई तुम
बेटी!
कैसा है वहाँ
अब तुम हो जहाँ
क्या वहाँ भी
जगह-जगह बार
और नशे का कारोबार है?
क्या वहाँ भी
अश्लील सोच
अपसंस्कृति का प्रसार है?
क्या वहाँ भी
दरिन्दों और
शोहदों की भरमार है?
क्या वहाँ की सत्ता में भी
दोहरे चरित्र वाले
नीति-नियंताओं का अधिकार है?
क्या वहाँ भी कोई पुरुष
मातृ-रूपी बेटी-बहिन के
अंग-भंग कर शर्मसार है?
नहीं ना ...
तब तो वहाँ
तुम्हारी चोटिल आत्मा
शायद शांति पा सके
क्षमा करना बिटिया!
वहाँ पर खोलना मत
इस जहाँ की
घिनौने कृत्यों की पेटियाँ
हाँ ..
अनवरत आवाज देना
इस जहाँ को -
‘कब महफूज होंगी बेटियाँ?‘
कदाचित
मेरे समाज में
नई क्रांति आ सके
और
तुम्हारी चोटिल आत्मा
शायद
शांति पा सके।