भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक भटके हुए लश्कर के सिवा कुछ भी नहीं / कामिल बहज़ादी
Kavita Kosh से
एक भटके हुए लश्कर के सिवा कुछ भी नहीं
ज़िंदगानी मिरी ठोकर के सिवा कुछ भी नहीं
आप दामन को सितारों से सजाए रखिए
मेरी क़िस्मत में तो पत्थर के सिवा कुछ भी नहीं
तेरा दामन तो छुड़ा ले गए दुनिया वाले
अब मिरे हाथ में साग़र के सिवा कुछ भी नहीं
मेरी टूटी हुई कश्ती का ख़ुदा हाफ़िज़ है
दूर तक गहरे समुंदर के सिवा कुछ भी नहीं
लोग भोपाल की तारीफ़ किया करते हैं
इस नगर में तो तिरे घर के सिवा कुछ भी नहीं