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एक भी गुल पर कहीं नाम-ओ-निशाँ मेरा नहीं / अनु जसरोटिया
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एक भी गुल पर कहीं नाम-ओ-निशाँ मेरा नहीं
ये चमन मेरा नहीं ये गुलिस्ताँ मेरा नहीं।
एक क़तरे की इजाज़त भी नहीं मुझ को यहाँ
ये नदी मेरी नहीं आबे-रवाँ मेरा नहीं।
जाऊँ भी तो दोस्तों जाऊँ कहाँ मैं किस नगर
इस भरी दुनिया में कोई भी मकाँ मेरा नहीं।
इस के कण कण को किया करती हूँ मैं झुक कर सलाम
कौन कहता है कि ये हिन्दोस्ताँ मेरा नहीं।
आदमी दुश्मन बना है आदमी का हर जगह
ये गया गुज़रा ज़माना ये जहाँ मेरा नहीं।
चल रही हूँ साथ सब के और हूँ सब से अलग
मैं शरीके-कारवाँ हूँ कारवाँ मेरा नही