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एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है / रफ़ी रज़ा
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एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
इस समुंदर में कोई और समुंदर गुम है
बेबसी कैसा परिंदा है तुम्हें क्या मालूम
उसे मालूम है जो मेरे बराबर गुम है
चर्ख़-ए-सौ रंग को फ़ुर्सत हो तो ढूँढे उस को
नील-गूँ सोच में जो मस्त क़लंदर गुम है
धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी
आँख को ढूँड के लाया हूँ तो मंज़र गुम है
संग-रेज़ों में महकता है कोई सुर्ख़ गुलाब
वो जो माथे पे लगा था वही पत्थर गुम है
एक मदफ़ून दफ़ीना इन्हीं अतराफ़ में था
ख़ाक उड़ती है यहाँ और वो गौहर गुम है