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एक मतअला, कुछ शेर / अजय अज्ञात

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ऐसा जुड़ा है रिश्ता मेरा शाइरी के साथ
जैसे है रिश्ता धड़कनों का जिं़दगी के साथ
इलमे अरूज़ में न महारत मुझे ज़रा
कहता हूँ दिल की बात फ़क़त सादगी के साथ


रौशनाई दे क़लम को फ़िक्र में गहराई दे
माहिरे कामिल बना दे शे‘र को रानाई दे
चाहता हूँ ख़़ुद को रखना ख़ुदनुमाई से अलग
लोग ख़ुद काइल हों मेरे ऐसी इक अच्छाई दे


ऐ ख़ुदा मुझ को भी तेरी मेहरबानी चाहिए
इक महकते गुल के जैसी ज़िंदगानी चाहिए
मुझ को लंबी उम्र की हरगिज़ नहीं है आरजू
जब तलक है ज़िंदगी मुझ को जवानी चाहिए


तुम जुबां पर हर घड़ी नामे ख़ुदा रक्खा करो
हर किसी के वास्ते लब पर दुआ रक्खा करो
जाने कब आ जाये कोई प्यार का तोहफा लिए
दिल का दरवाज़ा हमेशा तुम खुला रक्खा करो


जो हमारे दिल ने चाहा हम वही करते रहे
बस सुकूँ पाने की ख़ातिर शाइरी करते रहे
हमने मंदिर या कि मस्जिद में नहीं ढूंढा उसे
अपने मन मंदिर में उसकी बंदगी करते रहे


तसव्वुर की जमीं पर हम नयी फसलें उगाएँगे
अक़ीदत से मुहब्बत से वफ़ा के गुल खिलाएँगे
ज़रा दुश्वारियां देना सफ़र में ऐ मेरे मौला
किसी पर क्या गुज़रती है तभी तो जान पाएंगे


किताबें मौन रह कर बोलती हैं
बहुत से राज़ गहरे खोलती हैं
दिलों की ये गिरह भी खोलती हैं
कभी ये अज़्म को भी तोलती हैं
सिखाती हैं ये जीने की कलाएं
हमारे ज्ञान चक्षु खोलती हैं
बनाती हैं ये मंज़र ख़ुशनुमा सा
हवा में ख़ुशबुओं को घोलती हैं