एक मशहूर किताब की पच्चीसवीं सालगिरह पर / गिरिराज किराडू
अरसा हुआ कोई किताब पढ़े
अरसा हुआ कुछ लिखे
अब समझ आया है
पूरे चालीस बरस लिखने के बाद
हर चीज़ को लिखे की नज़र से देखता रहा
हर लिखे के पीछे कई किताबें हैं जो दूसरों ने लिखी
अपनी आँख न होने का पता नहीं चला उम्र भर
खुशफ़हमी की इंतिहा एक यह भी
नहीं मालूम जो मशहूर किस्सा लिखा अन्याय का सचमुच कहीं हुआ था
उसके जैसे बहुत हुए साबित कर सकता हूँ
लेकिन ठीक वही हुआ था –
याद तक में साफ़ नहीं
हुआ तो सिर्फ लेखन हुआ मृतक बोलते रहे मेरी आवाज़ में
अब यकीन मुश्किल है अपने आवेग अपनी कामना से ही छूता था तुम्हें उन्नीसवीं शताब्दी के किसी उपन्यास के एक बेहया दिलफेंक की तरह नहीं
मरने को अपना मरना होने देने के लिए लिखना है
एक बार अपनी किताब में अपनी विधि मर सका तो फ़र्क़ नहीं पड़ेगा आप
कैसे मारेंगे उपेक्षा से गोली से या अपमान से