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एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए / शारिक़ कैफ़ी

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एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में खुद को देखे हुए

एक दिन हम अचानक बड़े हो गए
खेल में दौड़कर उसको छूते हुए

सब गुजरते रहे सफ़ ब सफ़ पास से
मेरे सीने पे इक फूल रखते हुए

जैसे ये मेज़, मिट्टी का हाथी ये फूल
एक कोने में हम भी हैं रक्खे हुए

शर्म तो आई लेकिन ख़ुशी भी हुई
अपना दुःख उसके चेहरे पे पढ़ते हुए

बस बहुत हो चुका आईने से गिला
देख लेगा कोई खुद से मिलते हुए

जिंदगी भर रहे हैं अँधेरे में हम
रौशनी से परेशान होते हुए