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एक मुलाक़ात / साहिर लुधियानवी

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तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल,लेकिन
तिरे सुकून<ref>शांति</ref> से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे जाने कितना ग़म पहुचें
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

किसी की हो के तू इस तरह मेरे घर आई
कि जैसे फिर कभी आए तो घर मिले न मिले
नज़र उठाई, मगर ऐसी बे-यकीनी<ref>अविश्वास</ref> से
कि जिस तरह कोई पेशे-नज़र<ref>दृष्टि के सामने</ref> मिले न मिले
तू मुस्कुराई, मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की खबर मिले न मिले
रुकी तो ऐसे, कि जैसे तिरी रियाज़त<ref>साधना</ref> को
अब इस समर<ref>फल</ref> से ज़ियादा समर मिले न मिले
गई तो सोग में डूबे क़दम ये कह के गए
सफ़र है शर्त, शरीके-सफ़र<ref>सहयात्री</ref> मिले न मिले

तिरी तड़प से न तड़पा था मेरा दिल,लेकिन
तिरे सुकून से बेचैन हो गया हूँ मैं
ये जान कर तुझे क्या जाने कितना ग़म पहुंचे
कि आज तेरे ख़यालों में खो गया हूँ मैं

शब्दार्थ
<references/>