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एक मुश्किल किताब जैसी थी / विकास जोशी

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एक मुश्किल किताब जैसी थी
ज़िन्दगी इक अज़ाब जैसी थी

हमको तो ख़ार ही मिले लेकिन
ये सुना था गुलाब जैसी थी

घूँट दर घूँट पी तो ये जाना
एक कड़वी शराब जैसी थी

आई हिस्से में जो यतीमों के
वो तो खानाखराब जैसी थी

उम्र भर हम सहेजते थे जिसे
एक ख़स्ता किताब जैसी थी

कोई ताबीर ही न हो जिसकी
इक अधूरे से ख्व़ाब जैसी थी

है शिकस्ता सी आज ये लेकिन
बचपने में नवाब जैसी थी

तुमने देखी नहीं जवानी में
ज़िन्दगी आफ़ताब जैसी थी